महावीर गेरीवाल्डी | Mahaveer Gerivaldi

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Mahaveer Gerivaldi by इन्द्र विद्यावाचस्पति - Indra Vidyavanchspati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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4 हा कै मल इतिद्ास सिद सत्य है कि पाठशालाओंके अध्यापक इसे जार कर बहुत प्रसक्त नहीं दंगे | ही कु, न अस्तु | गेरीवाल्डोफे लिये समुद्र दी कर्मज्तेव निश्चित किया गया। अपने पिताके साथ उसने एक पन्दरंगाएले इूसरें यन्दस्गाद तक कई यात्राएँक्ी1। इन यात्राश्रोसेः पूर्व गेरीयाद्डी की आन्तरिक शक्तियाँ तो विकास पा रद्दौथों, किन्तु अभी उसका रष्टि क्षेत्र विस्तृत नहीं हुआ था'। ' संसार कहाँफो जा रद्या है ? मठ्भूमिक्रो पया दशा हैं !'दुस्रे दुर्द कहा चसते हैँ? श्रभी तक न यद्द प्रश्न उठे थे और ने इनका उच्तर द्वी मिल्ला था। ग्रेरीचाटडीका इृदय अभी तक शौशेक्री भाँति खाफ़ था। उसमें अतिकृतिके लिये श्वान'तो यहुत था, किन्तु घद्द स्थान रिक्त था। साधारण पुरुषोंके इंदय दपणका रिक्त-स्थान जीवनकी साधारण देनिक थातों से दी मर जाता दे, फिर असली चित्रोंक्रे लिये स्थान नहां रहता | जयतक जीवनको बनाने चाले मद्दान-पदार्थ सामने नहीं आये, तथतक गेरीवाटडीके हृदय दुर्पणका मुख ढफा रद्द, जदों थे पदार्थ सामने आये आवरण दृद गया और स्वच्छ इृदय से उच्चमाचोके सूर्यकी प्रतिरृति क्षणभरमें ले लो। अपनी दूसरी यात्रामें गेरीयास्डी रोम गया । रोमफो देखते दी गेरी- यारड,के दृदयमें “यद् मेरी चीज है ” इस प्रकारका भाव उस आया । उसे चित्तमें यद्ध भाय घूमने लगा कि “दो न दो इस श्प




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