श्री मुनि सुव्रत काव्य | Shri Muni Suvrat Kavya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मी! “पुरदेववस्पू” फे विज सम्पादक फड़कुले मद्रोद्य मे मपनी पाण्डित्य-पूर्ण भूमिका में लिखा है कि उलिखित भ्रशस्तियों से कविवर अहंदुदास परिडताचाये: भाशाघर जी के समकालीन निर्विचाद सिंध होते है'। किन्तु फमसे फम मैं आपको इस समय-निर्णायक सरणी से सहमत दो आपकी निर्विवादिता स्वीकार करने में असमर्थ हूं । फर्योकि प्रशस्तियों से यह नहीं. सिद्ध होता कि आशाधर जी की साक्षात्कृति अहद्यास जी को थो कि 'नहीं। 'धूक्ति और 'उक्ति' की अधिकता से यद्द अज्ुमान फरना कि साक्षात्‌ भाशाधर सूरि से अहंदुदास जी ने उपदेश प्रहण कर उन्हें गुरुभान रफ्खा था यह प्रामाणिक नहीं प्रतीत होता। फ्योंकि धुक्ति' और 'क्ति का अर्थ रघना-बद्ध ग्रन्थ-सन्दर्भ फा भी द्योसकता है। अस्तु मैं आपकी और अखएडनीय घातों फा खण्डन न फर सिर्फ आपकी निर्विधादिता से सहमत नहीं होता हूं । प्रचुर पुएय के परिपाक से ही प्रक्त फवि फददलाने फी कीति आदमी प्राप्त कर सकता हैं। करपियों के फसने फे लिये कया ही अलौकिफ मिप्नलिखित फसौटी है:-- “्रबय; केवलकबय: कीराः स्थ॒३ केवल घीराः | न बीरा। एगिडतकब्यरतानवमन्ता हु केशल गवय:?? ॥ “शीला विज्यामाठलामोरिकाबा। काव्यं के सन्ति विज्ञाः स्ियोडपि। विधां वैचुं बादिनो निर्विजेत्ुं विश्व॑ वक्त यः प्रवीण: स वन्य: || [ उद्धट० [| अस्तु उल्लिखित फसौदी पर कसे जाकर दमारे अस्तुत कविवर अह्दद्यासजी मे अपने फाब्य-पछेवर फी फनीय फास्ति में किव्चिन्मात्र भी कल मद्दी छगने दिया हैं। भापने फाव्य-फलित-फ्त्पना-फुटीर में फा्रलासन रूगाकर अपनी स्वर्णमयी अमर छेसनी से श्री मुनिछुयत तीर्थड्डुर के चार चरित्र फा चित्रण फिया है। प्राक्तव पद्धति फा अवलम्यन फर ही चरित्र-मायक के नामानुसाए इस काव्य फा भी नाम-निर्देश किया हैं। आपका यद सारा फाध्य माधुर्य तथा प्रसादगुण से ओत-प्रोत दै। प्रत्येक शल्तोक में मलड्डोर फै पुद देने से इसकी शोमा और भी फई शु्री अधिफ यह गयी है। भापके इस फाव्य- फानय में चिचरण फरने से फह्दी माधुये-मालती की मीठी २ खुगन्ध से सने हुए प्रसाई- पधन फा हलका कॉका खाकर चित्त आप्यायित दो जाता द्वैतो फ्ट्टी अन्त में वैश्य फी विरद-विनादिनी घीणा फा विहाग छुन जड़ीभूत जीव जगज्ञाल से छुट्फारा पाफर मुकि-घाटिफा फी विशुद्ध सरणी या अयलस्बन करने के लिये आकुल द्वो उठता है। इस फाच्य फुँज के सहददय शैलानों फो सदा ११ गाए हास्य, फरण तथा पैराग्य रस




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