न्यायविनिश्चय विवरणम् भाग - 1 | Nyayavinishchay Vivaranam Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
78 MB
कुल पष्ठ :
636
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावता २७५
संजय और बुद्ध जिन अश्ञों का समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अव्याकृत कह कर अपना
पिण्ड छुड़ा लेते हैं, महावीर उन्हीं का वास्तविक युक्ति संगत समाधान करते हैं। इस पर भी राहुलजी,
ओर धर्माननद को पसम्बी आदि यह कहने का साहस करते हैं कि 'संजय के अनुयायियों के लुप हो जाने पर
संजय के बाद को ही जेनियों ने अपना लिया? । यह तो ऐसा ही हे जैसे कोई कहे कि भारत में रही पर-
तन्त्रता को ही परतत्नताबिधायक क्षंग्रेजों के चले जाने पर भारतीयों] ने.उसे अपरतज्नता (स्वतन्त्रता) रूप से
अपना लिया है, क्योंकि अपरतन्त्रता में भी 'पर व न्त्र ता! ये पॉच अक्षर तो मौजूद हैं ही। था हिंसा को
ही बुद्ध और महावीर ने उसके अनुयाग्रियों के छुप्त होने पर अहिंसारूप से अपना लिया है क्योंकि अहिंसा
में भी हिं सा! ये दो अक्षर हैं ही। यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि--आप (छ०-४ ८४) अनि-
श्रितताबादियों की सूची में संजय के साथ निग्गंठ नाथपुत्र ( महावीर ) का नाम भी लिख जाते हैं, तथा
(प० ४९१ ) संजय को अभेक्वान्तवादी। क्या इसे धर्मकीति के शब्दों में 'घिग् व्यापक तमः नहीं
कहा जा सकता ?
स्थात्! शब्द के प्रयोग से साधारणतत्रा छोगां को संशय अनिश्चय या संभावना का श्रम होता
है। पर यह तो भाषा की पुरानी शेली है उस प्रसज्ञ की, जहाँ एक बाद का स्थापन घहीं होता । एकाधिक
सेंद या विकल्प की सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ 'स्थात्? पद का प्रयोग भाषा की शैली का एक रूप
रहा है जेसा कि मज््षिमसनिकाय के महाराहुलोबाद सुत्त के निम्नलिखित अवतरण से ज्ञात होता है---
“कतमाच राहुल तेजोधातु? तेजोधातु सिया अज्ञत्तिका सिया बाहिरा 1” अर्थात् तेजो धातु
स्थात् आध्यात्मिक है, स्थात बाह्य है । यहाँ सिया ( स्थात् ) शब्द का प्रग्मोग तेजो धातु के निश्चित सेदों
की सूचना देता है न कि उन भेदों का संशय अनिश्चण् था सम्भावना बताता है | आध्यात्मिक भेद के
साथ ग्रथुक्त होनेवाला स्थात् शब्द इस बात का द्योतन करता है कि तेजी धातु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं
है क्रिन्तु उससे व्यतिरिक्त बाह्य भी है। इसी तरह 'स्थादस्ति! में अस्ति के साथ छगा हुआ 'स्थात्? शब्द
सूचित करता है कि अस्ति से भिन्न धर्म भी वस्तु में हे केवल अस्ति धर्म रूप ही वस्तु नहीं है । इस तरह
'स्पात्? शब्द न शायद का न अनिश्चय का और न सम्भावना का सूचक हे किन्तु निर्दिष्ट धर्म के सिवाय
अन्प्र अद्योप धर्मों की सूचना देता है जिससे श्रोता वस्तु को निर्दिष्ट धर्ममात्र रूप ही न समझ बेठे ।
सप्तम गी--वस्तु मूलतः अनन्तधर्मात्मक है। उसमें विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न विवक्षाओं/ से
अनन्त धर्म है। प्रत्येक धर्म का विरोधी धर्म भी दृश्सिद से वस्तु में सम्भव है। जैसे 'घटः स्थाद्स्ति? में
घट है ही अपने द्रव्य क्षेत्र काछ भाव की मर्यादा से। जिस श्रकार घट में स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्व घमे
है उसी तरह घटव्यतिरिक्त अन्य पदार्थों का नास्तित्व भी घट में हे। यदि घटमिन्न पदार्थों का नास्तित्व
घट में न पाया जाय तो घट ओर अन्य पदार्थ मिलकर एक हो जायँगे। अतः घट स्थादस्ति और
स्याज्नास्ति रूप है । इसी तरह वस्तु में द्वव्यद्ृष्टि से नित्यत्व पर्यायद्ष्टि से अनित्यत्व आदि अनेकों विरोधी
धर्मचुगर रहते हैं । एक वस्तु में अधन्त सप्तमज्ञ बनते है। जब हस घट के अस्तित्व का विचार करते हैं
तो अस्तित्यव्िपय्क सात भज्ञ हो सकते हैं । जेसे संजय के प्रदनोत्तर या बुछ्धके अव्याकृत प्रश्नोत्तर में हम
चार कोटि तो निश्चित रूप से देखते हैं--सत् , असत् , उभव और अनुभव । उसी तरह गणित के हिसाब
से तीन मूल भंगों को मिलाने पर अधिक से अधिक सात अपुनरृक्त भृंग हो सकते हैं । जेसे घड़े के अस्तित्व
का विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तित्व धर्म,दूसरा तद्विरोधी नास्तित्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य
जो वस्तु के पूर्ण रूप की सूचना देता है कि वस्तु पूर्ण रूप से वचन के अगोचर है । उसके विराट रूप को
शब्द नहीं छू सकते । अवक्तव्य धर्म इस अपेक्षा से हे कि दोनों धर्मा को युगपत् कहनेवाला शब्द संसार में
नहीं है अतः वस्तु यथार्थतः वचनातीत है, अवक्तव्य हे । इस तरह मूल में तीन भज्ञ हैं--
१ स्पादस्ति घटः २ स्याज्मास्ति घटः ३ स्थादवक्तव्यों घट:
अवक्तव्य के साथ स्प्रात् पद गाने का भी अर्थ है कि वस्तु युगपत् पूर्ण रूप में यदि अवक्तध्य
है तो ऋमशः अपने अपूर्ण रूप में वक्तव्य भी है और वह जस्ति नास्ति आदि रूप से वचनों का विषय
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