सीता | Sita

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Sita by पंडित ईश्वरी प्रसाद शर्मा - Pt. Ishvari Prasad Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है सीता) बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा,--“मेरी ज्ञो धारणा थी, कि रामसे मेरा काम बन जायेगा, चह बिलकुल ठीक थी। उसका प्रणाम भी मुझे सभीसे मिलने रूगा | आश्रममें पहुँचकर, मुनिने राम-लक््मणको चडे आदरसे रपा आर उनको तरह-तरदके अख-शख्र प्रदान किये । मुनिके दिये डुँंए फन्‍्द, सूछ और फरलॉफो दोनों भाइयोंने बडे प्रेमले खाया भ्र्भाका निर्म जल पीकर बढेही सन्‍्तुष्ट हुए । «* हसरे दिन, प्रात*काल दोतेही मुनि नित्य-नैमित्तिक कर्माले निद्त्त हो, यश्ञ-भूमिमें आये और यशकी क्रियाएँ फरने छगे । राम और लक्ष्मण उनकी यज्ञ-शाछ्ाकी चौकसी फरमे छगे। सुनिके लौट आकर यश करने और ताडकाफे मारे आनेका संवाद खुन, भारीच और खझुबाहु, दल-के-दल राक्षसोंकों लिये हुए भा पहुँचे और तरह-तरहके उपद्रव मचाने रूंग्रे। उस समय दोनों भाइयोंने ऐसी घबीस्ता दिव्वायी, कि उनके छेफ्फे छूट गये और पुक-प्फ करके सभी उनके घाणोफे प्रदारसे मारे गये । मुनिकी अमिछापा पूर्ण हुई और उनका यज्ञ निर्विध्च सम्पूर्ण द्वो गया। इन दुए और उपव्रवी राक्षसरोंफे मारे जानेसे फेवल विश्वा- प्रिश्रकोही प्रसक्षता न हुई, चिक आस पासके सभी ऋषि मुन्रियोकी आनन्द हुआ भौर उनके रुड-फे रु राम-छष््मणको देखनिफे छिये भाने छगे 1 सयते हद्यसे उनको माशीवदि दिये भीर उन्‍हें घार-यार + व फरतेहुए सी न अधाये * प्रकार मिलते ४०... आनन्द छेते हुए




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