रत्नकरण्डकश्रावकाचार | Ratnakarandakshrawakachar

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Ratnakarandakshrawakachar by आचार्य प्रभाचन्द्र - Aacharya Prabhachandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भस्तावता आयिकसम्यसगृष्टि या तो उसी भवसे मोक्ष चला जाता हैं या तीसरे भवमें, या चौथे भवमें, चोथे भवसे अधिक संसारमें नहीं रहता। जो क्षायिकसम्यरदृष्टि बद्धायुष्क होनेसे नरकमें जाता हैँ अथवा देवगतिमें उत्पन्त होता हैं वह वहाँसे मनुष्य होकर मोक्ष जाता है। इस प्रकार चौथे भवमें उसका सोक्ष जाना बनता हैं ।* चारों गतिसम्बन्धी आयुका वन्ध होनेपर सम्यक्त्व हो सकता है, इसलिये बद्धायुष्क सम्पर्दृष्टिका चारों गतियोंमे जाना संभव है । परन्तु यह नियम है कि सम्यकक्‍त्वके कालमें यदि मनुष्य और तिर्यश्लके आयुवन्ध होता है तो नियमसे देवायुका ही बन्ध होता है भौर नारकी तथा देवक्के नियससे मनुष्यायुका ही वंध होता है। सम्पग्दर्शनकी उत्पत्तिके बहिरज्भः कारण कारण दो प्रकारका होता है. एक उपादानकारण और दूसरा निमित्तकारण। जो स्वयं कार्यहपष परिणत होता है वह उपादानकारण कहलाता है। और जो कार्यकी सिद्धिमें सहायक होता है वह निमित्तकारण कहलाता है । अन्तरज्भ और बहिरज्भके भेदसे निमित्तके दो भेद हैं। सम्यर्दर्शनकी उत्पत्तिका उपादानकारण) आसच्नभ्नव्यता आदि विशेषताओंसे युक्त आत्मा हैं। अन्तरज्भ निमित्तकारण सम्यवत्वकी प्रतिवन्‍्धक सात प्रकृतियोंका उपश्यम, अथवा क्षयोपशम हैं और बहिरज्भः निमित्तकारण सदुगुरु आदि हैं। अन्तरज्भ निमित्तकारणके मिलनेपर सम्यर्दर्शन नियमसे होता हैं परन्तु वहिरज्भ निमित्तके मिलनेपर सम्यग्दर्शन होता भी है और नहीं भी होता है । सम्यर्दर्शन- के वहिरज्ध निमित्त चारों गतियोंमें विभिन्‍न प्रकारके होते हैं। जैसे नरकगतिमें तीसरे नरक तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण और तीन्नवेदनानुभव ये तीन, चौथेसे सातवें तक जातिस्मरण और तीक्वेदनानुभव ये दो, तियंज्थध भौर मनुष्यगतिमें जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनविम्बदर्शन ये तोन, देवगतिमें बारहवें स्वर्गतक जातिस्मरण, धर्म- श्रवण, जिनकल्याणकदर्शन और देवडद्धिदर्शन ये चार, तेरहवंसे सोलहवें स्वर्गतक देवद्धिदर्शको छोड़कर तीन और उसके आगे नौव ग्रैवेयक तक जातिस्मरण तथा घ॒र्म- श्रवण ये दो वहिरज्भ निमित्त हैं। ग्रवेयकके ऊपर सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्च होते हैं, इसलिये १. दंसणमोहे खविदे सिज्ञदि एक्केव तदिय-तुरियभवे 1 णादिक्कदि तुरियभव॑ ण विणस्सदि सेससम्मं व॥ क्षे० जी० का० स० भा० २. चत्तारि वि खेत्ताईं, आयुगवंधेढ होइ सम्मत्ता। अणुवद-महव्वदाइईं ण रूहइ देयाउगं मोत्त'॥ ६५२ ॥ जी. फा. ३. आसन्नभव्यताकमंहानिसंशित्वशुद्भाकू. । देशनायस्तमिथ्यात्वो जीवः सम्यक्‍त्वमस्नुते ॥ सा. घ. । ड




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