विरुद्ध | Viruddh

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Viruddh by हमीद कर्सई - Hamid Karsai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आधी उड़ने लगेगी! उफ, मर्मो के इस विकराल मैदानी रूप की तो उसते कभी कल्पना भो नहीं की थी । उनके स्कूल में गमियों की छुट्टिया नहीं होती थी सो मा-्यापा ही उनसे मिलने को पहाड़ों पर चले आते थे, जाडों मे जब वे घर जाते तो मदानों का दूसरा ही रूप होता था। बह बोराते अंधड़ों का उनन्‍्माद, घूल और चटक सफ़ेद दुपहरियों का बंघा कर देने बाला तीखापन, सुनी सडकों पर भटकी आत्माओ से उडते पत्ते और प्रेत- से नाचते धूलिस्तम्भ 1 सब एकदम आकस्मिक थे। वह कुनकुना आसमान और घूप के नर्म यरमगोशी धब्वों वाली सडकें, नीते कुहासे में लिपटी टिम- टिमाती रूमानी शामे, जिन्हे उसने मेँदानी मौसम के रूप में जाना था, अब छलावा-मर लगते थे । पर छलावा वया सिर्फ मौसम तक ही सीमित था ?ै अब तो कुछ चच रहा था ती यही चटक सफेद दुपहरो का तपता सन्नाटा और उसके वीचो-बीच मुरझाएं पौधों की तरह जड़ी हुई भूरी-उदास- ज्वरप्रस्त आंखें । और शायद जब तक कोई कुछ और सोचना भी चाहे तब तक इस सारे को सहला-सहलाकर ढकती हुई रात गए की बूदी बयारे घलना घुरू हो जाती हैं और थकी चेतना एक शर्ममाक खुमारी में दूध ** ड्राइवर जाने कब आकर गाड़ी में बैठ गया था | कार झटके से स्टार्ट हो गईं। आम्तमान का एक हिस्सा फिर एक रुपहली अभद्गरता से चमकते ज्गा। वह मंत्रमुस्धन्सी सामने बडे ड्राइवर की काती गर्देत पर उमरती पसीने की बूंदें देख रही थी। काली-स्याह चमड़ी पर एक-एक कर बूर्दे उभरती, फिर कुछ बूंदें मिलकर एक बड़ी-सी बूद बन जाती और दौले से बहकर उसकी वर्दी के झवकू उजले कालर के भीतर रेंग जाती। उसने अपनी गईन पर उन बूदो की कुनकुनी सुरसुराहट महसूस की | पर ड्राइवर को स्पष्ट ही कोई परेशानी नहीं महमुस हो रही थी । शायद उसे * पता भी न चला हो कि उसका बदन कँसे बूदों में फूटा पड रहा है। उसते उदय की ओर देखा। वह चुपचाप दरवाजे के शीशे से सिर टिकाए सो रहा था। उसके भरे-भरे होठों भौर ठोडी के हुठीले मोड के दीद भी वही बूंदें 1 एक बार उसका मन छिया कि उदय को जगा दे भौर उससे




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