काव्य - धारा | Kavya Dhara

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Kavya Dhara by परमेश्वरानन्द - Parmeshwaranand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( र२ ) पाहन महेँ न पतंग बिसारा | जहँ तोहि सर्वर देहि तू चारा ॥ तड लहि सोग बिछोह कर भोजन परा न पेट | पुनि बिसरा भा सर्वरना जनु सपने भइ भेंट ॥| पदुमावति पहू आई. भँडारी । कहसि मंदिर महँ परी भमँजारी ॥ सुआ जो उतर देत अहा पूछा । उंडि गा पिंजर न बोलइ छूछा ॥ रानी सुना सूखि जिंउए गएऊ । जनु निसि परी असत दिन भएऊ || गहनहिं गही चांद कइ करा । आंसु गगन जनु नखतन्ह भरा ॥ टूट पालि सरवबर बहि त्ागे । कल बूड मधुकर उडि भागे ॥ एहिं बिधि आंसु नखत होइ चुए । गगन छांडि सरवर भरि उए ॥ छिहुरि चुई मोतिन्ह कइ माला । अब संकेत बांधा चह पाला ॥ उंडि यह सुअटा कहूँ बसा खोजहु सखि सो बासु। दहु हुई धरती की सरग पवन न पावइ तासु ॥




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