श्रीमद्भागवद्गीता पञ्चदशोध्याय: | Shreemadbhagawadgeeta Panchdashoadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३१६१४ शीमड्भरगवद्गीता [ भध्या « (४ ] &4$ रे सः 1 है ! खिदानम्दरूपाय कणायाक्षिषकारिशे | स् कर नमो वेदान्तवेद्ाय गुखे बुद्धिलाकछिणे ॥ १ हा फुछेन्दीवरकान्तसिन्दुवद्न वहावितंसश्रियं, + जे श्रीवत्सांकसुवारेकीस्ठुभपरं पीतास्वरं सुन्दरम। गोपीनां नयनोतनल्लाचिततनुं गोगोपसघाबृतते; शोविन्द कलवेशुवादनपरं दिव्यांगभूष॑ सजे॥२ गोविन्देति सदा स्नान गोविन्देति सदा जप: । शोविन्देति सदा ध्यान सदा गोविन्दकीलेनस ॥ ३ कुष्णे रेता: कृष्णमनुस्मरन्ति रात्रो च कृष्णम्पुनसुत्विता ये 1 ते भिन्नदेहा: मविशन्ति कृष्ण हृवियथा सन्न्नहुत हुताशे ॥ ४ अहा | सखे | आज शीतल मन्द सुगन्ध वायुकी लप्ट किघरेसे चली आरती है है| न हे किसी ओर एक पुष्पवाटिका सम्ीपमें उपस्थित है थोडा आगे बढ़कर अजी है वह देखो | सामने एक अदूभ्युतवाटिका ही तो दृष्टिगोचर होरही है जिसके चारों ओर नाना प्रकारके वृत्त अति सुन्दर सुहावने मज्ज़र, पुष्ष और फल्ोंसे लदे देख पढ़ते हैं पर क्या ही. आखप्येजनक लीला है, कि जितने वृक्त है सबोका मूल झाकाशकी भोर॒ और टहतनियां लीचे प्रथ्वीकी थौरे फैली हुई हैं । अर्थात्‌ सबके | सब वृक्ष उल्लटे लट्के हुए हूँ इन सबोंमें दो-दो फल भी लटकरहे । हैं जिनमें एक खेत और दूसरा कृष्णवर्णका है जिनसे रस टपक-टपक कर खेत्‌ और कृष्णवणकी दो सरिताएं बन आगे जा एकसंग मिलती |




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