जैन - ग्रन्थ - प्रशस्ति - संग्रह भाग - 2 | Jain - Granth - Prashasti - Sangrah Bhag - 2

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Jain - Granth - Prashasti - Sangrah Bhag - 2  by परमानन्द जैन - Parmanand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रच्तावना हट प्राकृत भाषा जो प्रकृति से सिद्ध हो श्र्थात्‌ स्वभाव से निष्पन्न हो, उसे प्राकृत कहते हैं। जो लोग प्राकृत भाषा को संस्कृत से निप्पन्न दतलाते हैं* । उनका वह कथन संगत नहीं जान पड़ता; बयोकि भ्राकृत जन साधारण की भाषा थी, अथवा जिस कथ्य मापा को जनसाधारख अपने व्यवहार में लाते हों, वही प्रकृति निष्पन्न भाषा है । प्राकृत भाषा की महत्ता जनसाधारण से छिपी हुई नहीं है । उसका सरल और मधुर साहित्य आज भी लोगों के हृदयों में अपने गौरव को अंकित किये हुए हैं। भगवान महावीर ने अपना उप- देश अर्धभागधी भाषा में दिया था वह आधी भगध देश की भाषा थी और आधी भापा शुरसेन देश की । पर उसमें प्रन्य भाषाग्रों के हृदयस्थ करने को क्षमता थी। बुद्ध ने भी तात्कालिक देश 'भापा को अपनाया था, वाद में वही भाषा पालि के नाम से प्रसिद्ध हुईं। प्राकृत की महत्ता उसके हृदयंगम करने से सहज ही ज्ञात हो जाती है। प्राकृत वड़ी सरल और सहज वोबगरम्य भापा है जत्रकि सस्क्ृत दुरूह भ्ौर कठिन है। इसी कारण वह जनसाधारण की भाषा नही बन सकी है। यद्यपि प्राकृत को गिराने का बहुत कुछ प्रयत्त किया गया; परन्तु फिर भी उसका अस्तित्व बना ही रहा। काव्यालंकार के टीकाकार नमि साधु ने लिखा है कि “सकल जगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापार: प्रकृति, स्तत्र भवं, सैव वा प्राकृतं । 'आरिसं वयणोे सिद्ध देवाएं अद्धमागही वाणी' इत्यादि वचनात्‌ वा प्राक पूर्व कृतं प्रावकृत--वाल-महिलादिसुवोध॑ सकल-भाषा-निवन्धनमूत॑ वचतमुच्यते । मेघनिर्मवतजलमिवैक स्वरूप तदेव च देशविशेषात्‌ संस्कारकरणाच्च समासादितं सत्‌ संम्कृताुत्तर विभेदानाप्नोति। श्रतशव आस्म्कृता प्राकृतमादी निर्दिष्दं तदनु संस्क्ृतादीनि 1” (काव्यालंकारटीका २,१२) इसमें बतलाया गया है कि--लोगों के व्याकरण ग्रादि के संस्कार से रहित स्वाभाविक वचन व्यापार को प्रकृति कहते हैं उसे ही प्राकंत कहा है। आर्प वचन में (द्वादशांग में) ग्रन्थों की भाषा अर्थ- मागघी थी, इससे प्रकट हैँ कि जो वालक तथा महिलाओं श्रादि के लिए सहजबोबगम्य है, वही भापा सकल भाषाओं की मूल कही गई है और बह मेघ वर्षा के जल की तरह पहले एक रूप होने पर भी देश भेद से और संस्कार करने से वह अनेक भेंदों में परिणत हो जाती है। अतएव थास्त्रकारों ने पहले प्राकृत की कहा है। वाद में (व्याकरणादि द्वारा संस्कारित हुई भाषा) संस्कृत आदि को कहा है। इस प्राकृत भाषा का भी क्रमणः परिप्कार हुआ और उसने अपने को साहित्यिक वेश-भूषा से अलंकृत किया । शिलालेखों को भाषा ओर व्याकरण सम्बन्धी प्राकृत साहित्य का अ्रध्ययन करने से इस बात का सहज ही भ्राभास हो जाता है। वोडढ़ों के हीवमान सम्प्रदाय के मान्य त्रिपिटकों की पालि और जैनागमों की पर्धमागथी प्राकृत वोलियों के ही साहित्यिक रूप हैं। प्राकृत भाषा के साहित्य को संस्कृत की तरह समृद्ध एवं संगठित बनाने के लिए वैयाकरणों ने व्याकरण के अनेक नियम भी बनाये । परन्तु प्राकृत की वोलियां अ्रपने भिन्‍न-भिन्‍न अनेक रूपों में प्रचलित रहीं और उसमें संस्कृत के समान एक रूपता न आ सकी । क्योंकि एक भाषा के लक्षण दूसरो भाषा के लक्षणों से जुदा थे । इसी कारण त्रिविक्रम और झाचार्य हेमचन्द्र आदि व्याक रणकर्ताओों ने नियमों में प्राय:'“क्वचित्‌ में 'वहुल' झ्रादि भब्दों का प्रयोग किया है। जिनसे स्पष्ट जान पड़ता है कि ये नियम किसी भाषा के लिए शादइवत रूप में लागू नहीं हो सकते | यद्यपि व्याक- रुणों से भाषा में थोड़ा बहुत सुधार भी हुआ है । फिर भी देशभेद और विभिन्न बोलियों के कारण प्राकृत १- प्रकृते: संस्क्रतादागतम्‌ प्राइतमू--वास्मद्रालंकारटीका २,५ अथवा प्रकृति: संस्कृत तत्र मवं तत्‌ भाग वा प्राकृतम्‌ 1 +हेंमचन्द्र प्राकृत व्याकरण




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