न्याय कुमुद चन्द्र भाग १ | Nyay Kumud Chandra Bhaag 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
34 MB
कुल पष्ठ :
616
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तानना ््
प्रकरणों के एक संग्रह के रूप मे, और उस दृष्टि से उसके त्रयत्व मे विशेष बाधा उपस्थित नहीं
होती। अकलंकदेव के अन्य प्रकरणो के देखने से ज्ञात होता है कि वे ग्रन्थ के प्रारम्भ से
भंगलूगान करने के बाद कण्टकशुद्धि आदि के उद्देश्य से एक पद देते है। इस ग्रन्थ से भी
ऐसा ही क्रम पाया जाता है, मंगलगान के पश्चात् 'सन्तानेपु निरन्वयक्षणिक! आदि पद्म के
द्वारा इसमे भी कण्टकशुद्धि की गई है। प्रमाण और नयप्रवेश की कुछ बाते यद्यपि प्रवचन-
प्रवेश मे दुहराई गई है तथापि उनमे दृष्टिसेद है और उसका स्पष्टीकरण आगे किया जायेगा |
रह जाती है प्रवचनप्रवेश के प्रारम्भ से सद्लगान की बात, सो न्यायकुमुदचन्द्र के कतो ने मध्य-
मडुल चतछाकर उसका समाधान कर ही दिया है। क्योकि ग्रस्थ का नाम उसके तीन प्रवेश
और प्रवेशो के अवान्तर परिच्छेदो के रहते हुए कोई भी विचारक उसे सध्य मड्गल के सिवाय
अन्य बतला ही क्या सकता था। फिर भी हमें ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ के पश्चस-
परिच्छेदान्तभाग को प्रथक् बनाया गया है और प्रवचनप्रवेश को प्रथक् , और बाद मे दोनों को
सडूलित करके लघीयस्रय नास दे द्या गया है। प्रारम्भ के चार परिच्छेरो मे प्रमाण के स्वरूप,
संख्या, विषय और फल का वर्णन होने के कारण उन्हे प्रमाणप्रवेश नाम दिया गया, पाँचवे
परिच्छेद मे केवल तयो का वर्णन होने के कारण उसे नयप्रवेश संज्ञा दी गई और छठवे' तथा
सातवे परिच्छेद से प्रमाण नय और निक्षेप का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करके भी श्रुव और
उसके भेद् प्रभेदो का प्रधानतया वर्णन होने के कारण उन्हे प्रवचनप्रवेश नाम से व्यवहृत किया ।
अकलंक के प्रकरणों पर वौद्ध नेयायिक घ्मकीरति का बड़ा प्रभाव है। धर्मक्री्ति ने अपने
प्रमाणविनिश्वय और न्यायविन्दु मे तीन तीन ही परिच्छेद रकखे है। अकलंकदेवने अपने
स्थायविनिश्वय से भी तीन ही परिच्छेद रच्खे है, अत' सभव है कि इसी का अनुसरण करके
लऊूघीयस्रय नाम की और उसके तीन प्रवेशां की कल्पना की गई हो । अस्तु,
पहले परिच्छेद मे साढ़े छ कारिकाएँ है, दूसरे मे तीन, तीसरे में साढ़े ग्यारह, चतुर्थ में
आठ, पोंचवे से इक्कीस, छठवे से वाइस और सातवें मे छ । मुद्रित लघीयस्रय के पाँचवे परिच्छेद
मे केवल बीस कारिकाएँ है किन्तु स्वोपज्ञविव्ृति तथा न्यायकुमुदचन्द्र की प्रतियां मे लक्षण
क्षणिकेकास्ते ' आदि कारिका अधिक पाई जाती है । विशृति तथा न्यायकुमु दचन्द्र की प्रतियों मे
कारिकाओ पर क्रमसंख्या नहीं दो गई है किन्तु मुद्रित ऊूबीयस्रय में क्रमसंख्या दी है। पता
नहीं, यह कऋ्रमसंख्या हस्तलिखित प्रति के आधार पर दी गई है या संपादक ने अपनी ओर
से देदी है ।
दिद्दति की प्रतियों में प्रवचनप्रवेश के प्रारन्म में निन्न पद्य अधिक पाया जाता है--
मोहेनेव परोपि क्मोनारह प्रेत्यामिवन्धः पुनः ,
भोक्ता कर्मफ़लत्य जातुचिदिति अभ्नष्टदश्जिनः |
कत्मादित्रतपोभेरुदतननास्वैत्यादिकं वन््दते ,
|
कि वा तह दपोउस्ति जेवलमिये घर
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