श्री - आचाराड्गसूत्रम् भाग - 4 | Shri - Aacharadgasutram Bhag- 4

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Shri - Aacharadgasutram Bhag- 4 by कन्हैयालाल जी महाराज - Kanhaiyalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ममप्रकाशिका टीका भ्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ३-५ पिण्डेपणाध्ययननिरूपणम्‌ १३ ब्न्लननि?ण?चि्ि्िककििि-फििकि-<_- <22-::..:.-:......::-८-८-८८०८०-००-----८८---८८ हम प८०++०८८८-+्े्ेि डिक के फडफ+ ओषधी: प्रेषषय इत्यग्रेणान्यय;, एवं तरुणीं वा फलिकामू-मुदूगादे! फलिम्‌ जीवितादप- क्रान्तामू अचेतताम्‌ जीवितरहिता मिल्यथे। एवं भग्नाम्‌ मर्दितां विराधितामितिरीत्या ता; सी औपघी; फलीसहिता! प्रेश्य-अवलोक्य तदेवथूतमीपध्रिजातय्‌ प्रासुफम भवित्तम्‌ एपणीयम्‌ आाधाक्रमादिदोपरहिितं मन्‍्यमानः छाभे सति प्रतिग्ृहीया दित्यर्य: एवं लिद्नव्य- त्यासेन सा भावशिश्षुड्ी साध्वी ग्रइए्तिकुर्ल भिक्षालामप्रतित्ञया अनुप्रविष्ठा सती ता; पधी अक्ृत्स्ना; असंपूर्णा अवित्ता; अस्वाश्रया; विच्छिन्नमुल्ा। विनष्ठ बोनी: हविदरूकृताः कतद्विदलविभागाः ऊधष्यैपाटिताः । तिरश्रीनच्छिन्ता; तिरइछेदयुक्ता: मेश्य तरुणीं झुदुगादेः फीं च लीवितरहितां भग्नां च प्रेक्ष्य तद्वेव भूतमौपधिरूपमाहारजातं प्रासुकमचित्तम्‌ एपणीययू आधाकर्मादिदोपव नि मन्‍्यनाना 31088 007 6 लाभे सति कारणे तथाभूता; स्वोषधी; फलीसहिताः प्रतिग्द्षीयादित्यन्ययो बोध्य: ॥ छू०४॥ पूज्म-ले भिक्‍खू वा भिक्खुणी वा जाव पविटे समाणे से जं पुण जाणेज्जा, पिहुये वा, वहुरयं वा झुज्जियं वा, संथुं वा, चाउलं वा, चाउ- लपलंब वा, सईं संसज्जियं, अफाछुय॑ अणेसणिज्ज॑ मण्णमाणे छाते संते णो पडियाहेज्जा ॥सू०५॥ छाया- स पभिछुर्वा, भिध्लुकी वा यावत्‌ प्रविष्ट: सन स य॒त्‌ पुनः जानीयात्‌, प्रथु्क वा, पहुरजो वा, सर्जितं वा, मन्धु वा, तन्दुल वा, तन्दुलप्रलुम्ब वा, सकृत्‌ संभ्िद्म अप्रा- छुकम्‌ अनेषणोय मन्यमानो छामे सति न प्रतिशद्वीयात्‌ ॥ छू० ५ ॥ ममप्रकाशिका टीका-सम्प्त्ति ग्राह्याग्रा ह्याहारप्रकरकत्वाद आहारव्शिषमधिकृत्य उच्यते- ओषधियों को देखकर ग्रहण करना चाहिये, इस अग्रिम क्रिया के साथ सम्पध हैं। अब फली-छिमी के ग्रहण के विषय में घतलाते हैँं-'तरुणिअ वा फलि 'छिचारडि! अपरिपक्च सुंग वगैरह के फलि-छिमी फो 'अभिकतंत॑ अभिक्रान्ताम्‌ जीब से रहित 'पेहाए” देखकर एवं “सज्जियं! भुरनाम-सर्दित देखकर उसे 'फाखुयं एसणिज्जंति! प्राखुक-जीब रहित अचित्त और एषणीय-आधा कर्मादि दोषों से रहित 'मण्णमाणे' समझकर “लाने संते पडिगाहेज्जा' मिलने पर अहण करना चाहिये ॥छ० ४॥ पेभ० 'बोडिन्नाओ व्यवन्धि-५ छप रहेप छू अ जा व्यवन्छिन्न ९5१ रछ्धित छे थे रोतनी शवों णीनहिने बने भछेणु हरी देव' गो४ण, जाने नीयेना स्माजणना डियापदे! साथे सभध छे, मै ने शणि-(सिजना भृरूणु भरवा सभधर्मा ४डे छ8-'तरुणिअं वा फहि' (छिवाडि ) ड। वणरनी भण विजेरेनी, इधी-सीगने 'अभिककंतः ९2१ रहित जोछने तथ। 'भज्जिय! के रा 'फाहुय एसणिब्ज॑ति! अधशु४-९०३ विनानी जसितत जे जेपणीय लेने साधजभांहिदेंपा विनानी : हे ४ संते भदुथ ४री बेब नये. पिता सभशठन छामे संते पडिगहिज्जा? भणे ते।




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