अध्यात्म तरंगिणी | Adhyatm Tarangini

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Adhyatm Tarangini by पन्नालाल साहित्याचार्य - Pannalal Sahityacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्यात्म तरज़्िणी ५ बाहुः । कुत इति, इति कुतः ? यतो माभूत्‌, कः ? अप्रचारः अप्रवर्त नसु । क्व ? व्योस्ति-आकाहे ॥ केषां ? पवनपथसदासू पवनस्य पन्‍्था सार्गेः आकादं तत्न सीदन्ति गच्छन्ति पवरनपथसदः तेषां विद्याधराणामित्यर्थे: । किसनेनोकतं ? सर्वापिध्यानमुद्रा प्रक्रटोकृतेत्यर्थ: । इदमेवामि (म्य)ध्यायि पुवेरपि -- श्वासो येन विनिरजितोईजितरयो देहस्य खेदास्पदों (दं) येनोन्सेषनिसेषभावरहिते. नेत्रे.. स्थिरे स्थापिते । यस्यादेषकुनीतिसाग्गंविषयो. व्यापारसड्धो गतो योगी सो5न्न सनोगतो5द्भुतरसे प्राप्तो दशामीहशीस ॥१॥ श्रात्मोयात्मीयराद्धान्तावबोधविवुद्धोद्धधहार (हरि) हर व्यवहारा, न्यक्षमोक्षकारणावीक्षावीक्षणसंक्षया दक्ष णतत्कारणविवक्षा5दक्षा गृहगृहिणी- सड्भभाजोडपि गृहस्था ध्यानाधीनधिषणा भवन्‍्तीति समभिदधुर्दु्वादिनः केचन । अन्‍्ये पुनः पाषण्डिबण्डाग्रेसराः 'पदुसितपटविटाः सम्रन्थस्यापि योगसंगतता सागर वरायां (सागरास्बरायां) संगिरते । थे वृषभ जिनेन्द्र तुम सब के लिये उत्कृष्ट सपदाए-- अनन्त चतुष्टय रूप विभ्ूतिया--प्रदान करें जो कि ससार से अत्यन्त उदासीन हो तपर्चरण मे निरत है तथा उस तपश्चरण की दशा में भी जो प्ृथिवी पर जोर देकर अपने पेर इसलिये नही रख रहे है कि कही मेरे भार से यह एृथ्वी नीचे की ओर न खिसक जावे । जो अत्यन्त सूक्ष्म श्वासोच्छुवास' की वायु को इसलिये छोड़ रहे है कि कही उसका आघात पाकर कुलाचल विनाश को प्राप्त न हो जावें तथा जो अपनी दोनो भुजाओ को नीचा इसलिये किये हुए है कि कही इनके निमित्त से आ्राकाश में देव और विद्याधरों का सचार रुक न जावे ।




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