श्री दिवाकर अभिनन्दन ग्रन्थ | Shri Diwakar Abhinandan Granth
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
356
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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भी दिवाकर अभिननन््दन ग्रथ ] [
ना
? शोकप्रमोदमाध्यस्थ जनी याति सहेतुकम् ॥
कटपना करिये कि तौन व्यक्ति एक साथ किसी खुनार की दुकात पर गये।
उनमे से एक फो स्वर्ण घट की, दूसरे को सुकट फी और तौसरे को फेवल स्वर्ण की
आवश्यकता है। वहा जाकर थे देखते हैं कि सुनार सोने के वने हुए: घढे को तोड़कर
उश्तका मुकुद बना रहा है। सुनार फे इस काये को देसफर उन तीनो ही मजुरष्यों के
मन मे सिप्त भिन्न प्रफार के भाव पदा हुए । जिस स्वर्णघट की आवश्यकता थी
डसे ऋोफ हुआ, जिसे सुझुट की आवश्यकता थी चह भसद हुआ आए जिसे फेयल
स्पर्णे फी ही आवश्यकता थी उसे न शोक हुआ ओर न हर्ष ही | वह अपने मध्यस्थ
भाव में ही गहा । यहा पर प्रश्ष होता है कि इस प्रकार का भाव-भेद ज्यों ? झगर
चस्तु उत्पाद व्यय घत्यात्मक न हो ते। इस प्रकार के भाव भेद की डपपीत्त कभी
नही हो सकती | घदभपराति की इच्छा से आने वाले पुरुष को घ८ के विनाश से
शोक और सुकुछार्थी पुरुष को सुझुद् की उत्पत्ति से हपे आर स्वणांथी फो न हर्ष
ओऔर न शोर ही हुआ | इससे यह प्रतीत होता है कि घट के विनाश काल में ही
सुकुद उत्पन हो रहा है और दोनो ही अयस्था में खणद्र्य स्थित ह। तभी ते। उन
तीनों को क्रमश शोऊ, हप और मध्यस्थ भाव हुआ। यदि घद-पिनाश काल में
मुझुट की उत्पत्ति न मानी जाय तो घढाथी पुरुष को शोक और मुकुठार्थी को हपे
का होना दुर्घट-सा हो जाता ह *' एवं घट म॒कुर्णादे स्वर्ण पयायों में खणे रूप कोई
छथ्य न मान जाय तो स्वणीर्थी पुरूष के मध्यस्यभाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती है
परन्तु खुनार के इस एक ही व्यापार से शक प्रमोद और माध्यस्थ तीसों प्रकार
के भाव देखे जाते हे। ये निर्निर्मित्तक नहीं हो सकते इसलिए चस्तु के स्प॒रुप की
उत्पाद व्यय और ब्त्य युक्त ही मानना चाहिए। एफ और लौकिफ उदाहरण से
पदार्थ उत्पाद च्यय भौग्यात्मफ सिद्ध हाता है | वह इस धकार है -- '
पंयोत्रतो न दष्यतति न पयोत्ति दचधित्रत' |
प् >
- । -“ अगेश्सब्रतो नोमे तस्मात्तत्व न्रयात्मकम ॥ *
“ “जिस, पुरूष को केयल उुग्ये ग्रहण का नियम है चह ठहो नहा खांता।
जिसको दि-प्रहण का नियम हे चह झुग्थ का अहण नहीं करता। परन्तु जिस
व्यक्ति ने गो-रस का त्याग कर दिया हो वह न दूथ ही खाता है और न दही ही ।
इस प्यापहारिक उदाहरण से दुग्ध का पिनाश, दृधिकी उत्पत्ति और गोरस की
सियस्ताय तीज ही दर प्रमाणित होते है। उपाध्याय यशाविजयजी ने लिखा है -
3 उत्पन्न - दधिभावेन नष्ट दुग्धतया पयः।
' *. गोरसलाात स्थिस््जानन् स्पा्राददिड्जनोडपि का ॥
अर्थात्ू-दूध ज्ञप दृंही रूप मे परिणमता है नय दुध का पिनाश और दरधिका
क
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