विद्यासागर | Vidya Sagar

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Vidya Sagar by रूपनारायण पाण्डेय - Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्छ विद्यासागर । दिना मे उनकी यह आशा निराशा के अन्धकार में लीन हो गई । एक ते उनके पतिदेव ल्लापता थे, दूसरे कई एक दुधमुहे वच्चो की भरण- पेघण और देख-रेख का भार उनके ऊपर था। दुर्गादेवी के माता- पिता बहुत ही बूढे थे | ग्रहस्त्ी का कर्दृत्व दुर्गदेवी के भाई और मौजाई के हाथ मे था। भाई और माजाई एक अनिश्चित समय के लिए इन सात जीवा के भरण-पेपण का भार अपने ऊपर लेना नहीं चाहते थे । इसी कारण वे सदा साधारण साधारण बाते पर ल्डाई भगडा और गाली-गलैौज किया करते थे । समय समय पर बहुत छु खित होने पर दुगगदिवी अपने बृद्ध माता-पिता से जाकर कहती थीं। लेकिन उससे कुछ फल नहीं दावा था। कारण, बूढे मा-बाप की कुछ चलती न थी। अन्त को पिता की आज्ना से पिता के घर के पास ही दुर्गदेवी ने एक छोटी सी भ्लापडो बनवा ली और उसी मे पुत्र-कन्यासहित रह कर बडे कष्ट से दिन विताने लगी | जिस समय का यह वर्णन है उस समय निरुपाय भद्ग-परिवारोा की असहाय स्त्रियाँ तक्ुएण और चर्से में सूत कात कर, दूसरो के द्वारा उसे बाजार में वेच कर, अत्यन्त दीनभाव से अपना गुजारा करती थीं। दुर्गादेवी ने भी यद्दी रास्ता पफडा । लेकिन केवल उतनी ही आमदनी से फाम नहीं चलता था। इसलिए उम्रापति तकंसिद्धान्त भी चीच बीच में कुछ कुछ सहायता करते थे। इसी तरह कष्ट से छुछ काल वबीता । इसी समय बडे लडके ठाकुरदास से माता का असह्य कष्ट नहीं देसा गया और उन्होंने वनोपाजंन के विचार से लडकपन मे ही घर छोड कर कलकत्ते को यात्रा कर दी। माता की आज्षा लेफर ठाकुरदास जब कल्ऊत्ते आये तब उनकी अवस्था केवल पन्द्रह ब्ष की थी।




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