साधु शिक्षा | Sadhu Shikhsa

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Sadhu Shikhsa by मुनि श्रीतिलकविजयजी - Muni Shree Tilakvijayji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(श्ष्यु चूदे पुरुषों द्वारा योजित किया हुआ एक चारेत्रका साधद है। सयप गुगोंकी वृद्धिके छिप्रे ही उप्ते सेबन क्रिया जाता है। मात्र बाद्याचार पर ही-साधन यात्र पर ही वृत्ति रखना और सयप्रऊँ शुण प्राप्त करनेके लिगे किंचित कष्ट साध्य अपना वर्तन-आचार जरा भी उचा न रसना यह अपने हाथसे अपना हनन करने के सयान हे | जिस तरह एक कसाईने एक बकरीफो जिनह करनमेंके लिये तेयार की आर चह किया करनके लिये छुरी लेनेको- शया। परन्तु छुरी न विलनेसे बह दूडने छगा, दवयोग छुटी चकराऊे पास ही पडी थी, वकरीने छुर्राेको देखा और अपनी जाम बचानेऊे हेतुसे या जातित्वमावसे उसने उस छुरी का- ढक देनेके लिये उस पर घूल डाछ दी और उसे ठिपानेकी बुद्धिनि उस पर गरदन रख लेट गई। ऐसा फरनेसे उसी छुरी झ्वारा उसका अन्त होगया। इसीको अजागलऋूचरी न्याय कहते हैं। इस तरह अपने ही हाथोंसे अपना विनाअ करना यह सर्धा अयोग्य जीर अनुचित बर्तन है । सिर्फ वेश पात्र साधुका रस्मना आर बतेन उससे विपरीत रखना इससे अपने हायोंसे दुगाति दु स॒ प्राप्त करने जैसा है । विश्वुद्ध सवपी भी चन्दन नपम्कार अथवा उपाधि वगेरहकी वाच्छा तो न ही करे परन्ठु कद्राचित्‌ कारये पड़ने पर इन्छे तो बह नौविशी अपेश्षा अनुचित न मिता जाय। क्योकि उस चैसा करनेका अधिकार है। परन्तु हे नायवारी मुने ! तेरे लिये तो कोई सामे ही नदी कि जिससे तेश बचाव होसके ॥




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