सम्राट हर्ष | Samrat Harsh

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Samrat Harsh by शंकर - Shankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बदला भौर बदला २५, उजलथकलमरत22 2० >> जक आत्मा काँप गई उसे यह भय सताने लगा कि कहीं राजकुमार मेरा सिंहासन न छीन ले। शंका और ईरप्या से वह व्याकुल हो ; उठा। उसके मन में बार-बार यही प्रश्न उठने लगा कि किस प्रकार राजकुमार को दुनिया से उठा दूं ? युद्ध में मारना तो उसने असम्भव समझ लिया; क्‍योंकि शशांक को विश्वास हो गया था कि राज्यवर्दन को हराने वाला सेनानी अभी तक पैदा ही नहीं हुआ है । अन्त में उसने छल्न-नीति से काम लेने का निश्चय किया। देर तक वह मन ही मन अनेक प्रकार के तके- वितरक करता रहा, फिर एकाएक प्रसन्‍न हो उठा । उसकी आँयों में चमक आ गई और वह अपने-आप पर खुद ही मुस्करा उठा। उसने एक अचूक पड़्यन्त्र सोच लिया था, जिसके द्वारा उसकी इच्छा पूर्ण हो सकती थी। वह उठा और अकड़ता हुआ महल में टहलने लगा । मालवा-विजय के उपलक्ष्य में राज्यवद्धन का सम्मान करने के लिए शशांक ने अपना दूत भेज कर रास्ते में से ही उसे बुलवा लिया। राज्यवद्धेन उस पर विश्वास करके चल पड़ा । दावत देने के बाद भरे दरबार में शशाक ने राज्यवर्द्धन को राजमी वस्त्र प्रदान किये। उन पर सोने-चाँदी का काम किया गया था। उस चमचमाती हुई और सुगन्धित पोशाक में राज्य- वर्द्धन को देखकर सभी दरबारी तालियाँ वजाने लगे । फिर स्वर्ण-मुद्राओं तथा आभूषणों से भरा हुआ थाल राजकुमार को भेट कर शशांक ने उसकी प्रशसा में कुछ धब्द कहे | इसके बाद दरबार उठ गया। राज्यवर्द्धन अपने सरदारो के साथ शिविर की ओर लौट पड़ा 1 राजकुमार थोडी दूर तक ही आया था कि उसका सिर चकराने लगा। उसने सरदारों को बताया, “मेरी सारी देह में जैसे आग जल रही है ! ”




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