विद्वद्रत्न माला भाग - 1 | Vidwadratnamala Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
190
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १७ )
यहांपर एक वात यह विचारणीय है कि वीरसेनस्वार्मके पीछे
जिनसेन और जिनसेनके पीछे गुणमद्रस्वामीने ही आचार्यपदको
सुशोमित किया था, या अन्य किस्तने। देवसेनसूरिने अपने दशेनसा-
रगन्थम काष्ठासंघकी उत्पत्तिम लिखा है किः---
'सिरिवीरसेणसीसो जिणसेणो सयरूसत्याविण्णाणी |
सिरिपउमणंदि पच्छा चडसंघसमुदुरणघीरों ॥ ३१ ॥
तस्य य सिस्सो गुणवं गुणभद्दो दिव्वणाणपरिषुण्णों ।
पक्खोबासमंडिय महातवों भावलिंगो य॥ ३२ ॥
तेण पुणोत्रि य मिच्च॑ णेऊंण मुणिस्स विणयसेणस्स |
सिद्धंतं घोसित्ता सय॑ गय॑ सग्गलोयस्स ॥ ३३॥
अर्थात्--श्रीवीरसेनाचार्यके शिष्य जिनसेन जो कि संपूर्ण शान्नाके
ज्ञाता थे, श्रीपअनन्दिके पश्चात् चारों संवके स्वामी ( आचाय )
हुए | फिर उनके शिप्य गुणवान् गुणभद्र हुए जो कि दिव्यज्ञानसे
परिपर्ण, एक एक पक्षका ( १५ दिनका ) उपवास करनेवाले, बड़े मारी
तपस्वी, और सच्चा मुर्निर्ठिंग धारण करनेवाले थे । उन्होंने श्रीविन-
कली >४ा
१. संल्कृतछाया--
श्रीवीरसेनशिप्यों जिनसनः सकलशासत्रविज्ञानी
श्रीपझनन्दिपज्यात चतुःसंघससुद्धरणधीरः ॥ ४१ ॥
तस्य च शिप्यो गणवान ग़णमद्धो दिव्यकज्ञानपरिप्णः !
पक्षोपवासमण्डितः महातपः सावलिद्वक्ष ॥ रे३॥
तेन पुनोपि च मृत्यु नीत्वा सनः वविनयसनस्य ।
सिद्धान्त घासित्वा स्वयं गते स्वगलोकस्य ॥ ४१ ॥
डर
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