सङ्ख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा | Sankhya Darshan Ki Aitihasik Parampara

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Sankhya Darshan Ki Aitihasik Parampara by प्रो. आद्याप्रसाद मिश्र - Addya Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० सांख्यदर्शन का इतिहास के समय में भी अनेक शिष्ट पुरुष सांख्य दर्शन को वैदिक दर्शंत मानते थे तथा परम-पुरुषार्थ का साधन मानकर उसका अनुसरण करते थे । श्राखिर सांख्य के विषय में उस सुदूर अतीत काल में भी शिष्ट जनों की इस मान्यता का क्या कारण हा-सकता है ? अ्रहैतुक श्रथवा अ्रकारण तो यह मान्यता हो नहीं सकती ।.इसका एक कारण तो भाष्यकार शड्ूराचाय के पीछे दिए गए उद्धरण से ही स्पष्ट है, और वह कारण यह है कि यह दर्शन श्रौत लिड़्ों से युक्त है भ्र्थात्‌ 'तत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्न ज्ञात्वा देव मुच्यते सर्वपाशेः (इवेताइवतरोपनिषद्‌ ६1१३) इत्यादि श्रुति-वचनों से ऐसा प्रतीत होता है कि इस दर्शन को समस्त बन्धनों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है। सच तो यह है कि शंकराचार्य की दृष्टि से सांख्य का उपनिषदों से कई बातों में जो भेद दीख पड़ता है, जैसे उप- निषदों के ईड्वरवाद के विरुद्ध सांख्य निरीश्वरवादी है), उपनिषदों के प्रज्ञानात्मक-ब्ह्माद्ययवाद (16००11801० 77107187) के विपरीत सांख्य प्रकृति-पुरुष-दतवादी है, उपनिषदों के विवर्तेबाद (मायावाद या अजातिवाद) के विपरीत सांख्य प्रकृति-परिणामवादी है, उपनिषदों के ऐकात्म्यवाद के विपरीत सांख्य पुरुषबहुत्व-वादी है, वह सब उनकी विशेष दृष्टि के कारण । उन की दृष्टि में केवल सांख्य देन का ही उपनिषदों से विरोध हो, ऐसी बात नहीं है। इसके विपरीत न्याय, बैशेषिक, योग, भौर यहाँ तक कि अपने एवं अपने परम-ग्रुरु गौडपाद से पूव॑बर्ती वेदान्त का भी तथा-कथित औपनिषद मत के साथ स्पष्ट विशेध है। यही कारण है कि अपने वेदान्त- भाष्य में शड्भूराचार्य को श्रोपत्तिषिद मत का अ्पन्ती दृष्टि से उपन्यास कर चुकने के बाद उसके विरोधी इन सभी मतों के सविस्तर खण्डन का प्रयास करना पड़ा । ऐसी स्थिति में उपनिषदों के साथ सांख्य दर्शन के इस तथा-कथित विरोध की मीमांसा करने के अननन्‍्तर ही इस सम्बन्ध में किसी तिश्चित निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है।॥ इसे अगले अध्याय में करेंगे । पं० एस० सूर्यतारायण शास्त्री श्रादि कुछ आधुनिक विचारकों का मत है कि “यद्यपि सांख्य सच्चे भ्रर्थों' में बाह्यार्थवादी है, चित पुरुष के अतिरिक्त श्रचित्‌ प्रकृति को जड जगत्‌ का कारण मानकर चलता है, भ्रौर इस प्रकार विज्ञानात्मक ब्रह्माद्ययवाद से भिन्न प्रकृति-पुरुष- हुं तवाद का अनुयायी है, तथापि इस मत का अन्त या पर्यवसान उस स्थिति में होता है जिसमें जड प्रकृति मुक्त पुरुष के लिए नित्य-परिणामित्ती रूप से रह ही नहीं जाती । सांख्य दर्शन का इस स्थिति में पर्यव्तात तो उसके विषय में इस मान्यता या कल्पना के साथ अधिक मेल में है, ग्रधिक संगत है कि सांख्य दशंन में भी उपनिषदों की ऐक्य-हृष्टि की ही प्रकारान्तर से खोज की जा रही थी, न कि उस दृष्टि के विरुद्ध किसी प्रकार का विद्रोह किया जा रहा था ।” शास्त्री १. यह कथन निरीश्वरवादी ( (४19881091 ) सांख्य को दृष्टि में रखकर किया गया है, उपनिषद्‌- मूलक महाभारत, भागवत आदि के सेश्वर सांख्य के विषय में नहीं । इसे द्वितीय अध्याय में स्पष्ट करेंगे । २, द्रृष्टव्य, एस० सूर्यनारायण शाज्री द्वारा सम्पादित सांख्यकारिका की स्लिखित भूमिका, पृष्ठ २ ६५०5 एरफ्ताढ 3६ 22399 98 सपाए इब्वांदे ६४3७६ 6 ड$व्गंटएए०३ ३४ प्रयतेठपां+०त1ए 762118070, 37 रीवा, 4६ ४ 8 छेद पीठ ईए०0 ॥८७1॥101९8-89107: 250 179(02८1, ३६ ०0०प्रशोपठ068 छा 38 ४8६४ छदा पाद्वा6ए, 38 2 ग्रारपाओंं० ९ए01ए९7६, 8065 790६ €ड्रांईइ६ 107 ६86 ४216286प 89101, 271 1118 ०070ए४४1००४ ०प्ात 8८८०० ६0० 8९०००प0 96६६९० शा पट 1एए90०ऐ८३85$ ६180 ६16९. ऋरंध्0०7 01 ०7७८7८४४ ४88 9९४ 80प876 ४६९४ ६871 ६7०६ 1६ ४०8 ए९०८!]९८९ ७2०४108




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