ज्ञान प्रदीपिका | Gyan-pradipika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
113
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(ख्)
जाता है। इस विया का अ्नेजों में ?'ण्णंग/!ए अवया 01170080०7 कहते हैँ।
मुख्यतया इस्ताड्वित रेखादि देख कर दी इस शास्त्र के द्वारा शुमाशुभ फढ़ें का निर्देश
किया जाता है। विद्वानों ने सामुद्रिक शाल्र को अधिक मद॒त्व फ्ों दिया है, इसका
खुलासा नीचे किया जाता है।
यद्यपि शरीर के प्रत्येक अइ्डू में शुमाशुभणेधक चिह विधमान दे) फिन्हें पे चिह
विशेष रूप से स्प्ट हथेठी में ही पाये जाते दे। स्पभावतः हस्त को विशेष मद्ित्व देने का
हेतु एस भोर भा दै। द्मार सभा काम द्वाथ से द्वी द्वाते दे। मंगल और अमजूछ कार्यो
का करनेवाला यददो है। अतः इसो द्वाथ पर शुमाशुभ बिहों का चित्रण करना उपयुक्त ही
है। इसके साथ २ एक ओर सो बात है, अगर मनुष्य मे इस विद्य। का शान ओर
तुभव दा बदू झरना हाथ स्वयं अन्य अंग को पपेत्ञा आसानो से देख सकता दे।
यद कार्य अन्य किखो अड्डू से सुलम नहों दा सरूता। इसो से हस्त का रेखा
परिक्षान के लिये विशेष स्थान प्राप्त है। विद्यावा का मत है कि इसके आविष्कारक
हाने का,संस्ताग्य भारत को ही प्रात है। यदासे चोव भी प्रोड में इस विद्या
का प्रवाए हुआ। पथ्माव् प्रोक से यांसव के अस्यान््य भागे में यद विया फैली।
पेतिद्ासिक विद्वोने का यद् भो अठुमान दे कि ईसा के लगभग ३००० वर्ष पूर्य घीन में पद
२००० बर्ष पूर्व प्रीक में इसका प्रचार हुआ। अतः निम्नास्तरूप से यद जाना जा सकता
दे कि भारत में इसके पदले से दी इसका प्रवार रदा द्वागा। हाथ में ज्ञितनो दी कम
रेखायें द्वागी भर हाथ साक रदेगा बद वुदत्र उतना द्वी ख्धिक भाग्यशाली समझता जाता
है। दथैलो के प्रधानतः सात रेखाआ' पर द्वी विचार हावा है। (१) पिठ्रेखा (२) मातू-
देखा (३) भायूरेजा (४) भाग्यरेखा (५) चद्ररसा (६) स्गस्प्यरेला झोर (७) घनरेज्षा !
इनमें झादि के चार प्रधान हैं। इनके अतिगिक्त सस्वान, श्र, मित्र, धर्म, प्धर्म प्ादि
ओर भी करे रेखायें द्वातो हैं। अस्तु इस विषय को यहां प्रधिक बढ़ाना अप्रासंगिक होगा ।
परत मुझे यहां पर यद दियार करना है कि प्रदों के शुमाशम फलक्रथन के सम्तस्ध
में छोगों फी फ्या घाएणा है। दैश्ानिक्नों फा कपन दे कि मठुष्य झपने अपने फर्मोजुप्तार
ही समय समय प० खुस्तो या दुःखी हुआ फरते दैं। उनके उस सुख-दुः में खूर्य याद्धादि
फगोल के प्रद कारण नहीं हैं। हाँ, प्रद्ां की स्थिति के झठुसार प्राणियों के भावी कस्पाय
था मकृदयाण का अनुमान किया ज्ञा सकता दै। प्रद्ों के अनुधार मदिष्य में विपत्ति की ५,
सम्भावना होने पर उसको दूर करने के लिये शास्ति का अ॑ब॒ुठाद करने से प्राणियों को
फिए उस दिपत्ति का प्राप्त नहीं हाना पहुता झादि।
अस्त, पैज्ानिकों का प्रद्रसमन्धी यह मन्तत्य मैनघर्म के प्रहकछसरस्धी मत्ठव्यों
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