जवाहर - विचारसार भाग - 2 | Jawahar Vichar Sar Bhag - 2

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Jawahar Vichar Sar Bhag - 2  by शोभाचन्द्र भारिल्ल - Shobhachandra Bharill

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जवाहर-विचारसार ] [ १४ ट्रिममाम्गन्‍पमम।.. ]डुक-प०१ जी! भा. 8+ ७०-५७ णय०ए०ा०+“-1$०-पहुक “पइइमम बहुत गगबूहुट गायक पक |गगूझक सुजकम पका गुड राम कममा न? सहन्पहम् सही का अकाल आक०+. कक हद सकता. हम तह आभ्यरमन्पायाहितत्यात ३८ आर्य ७ अकाझनियाा-नकनााओ+ केक | राम 33 कक री. न पापनकपओ वन वपनापुझ़ क-+- -1+-वया पढने ७०-७५-५८+ ५» “जन फुट कक मनी जग /अनकयून।,. 8०००० जानी ऑिाओा. न कि नी विभशतत यमन धन. न्जश 53 आओ आप आओ कआ। “४7्7्«४++ का धनी: छज> ऑजल औआएनन्‍जाओओ ध्म कैल्‍िजज-++ - प्रा पा 5» कि खिप आल कान आऔृडफि- ७ आह ४ 7८: न्‍>नकान- ने.“ 3७०० ->)-ब०_+-+>कना ऑीचिीथयथपाडए “5 अब ++- “७ लाशहत 33० ना “५3 बलसदघक्‍ ०-13 ४७-«७००-*-नननचोीा। अन्तःऋरण सच्चा होना चाहिए । वह क्रिया यह है कि अपना वल छोड़ दे | अर्थात्‌ अपने बल का जो अहंकार तुम्हारे हृदय में आसन जमाये बेठा है, उस अहंकार को निकाल बाहर करे | परमात्मा की शरण में चले जाओ | परमात्मा से जे बल प्राप्त होगा चही आत्म-वल होगा | जब तक तुम ऐसा न करेगे, अयते बल पर अर्थात्‌ अपने शरीर, या अन्य भे।तिक साधने के बल पर निभर रहागे, तब तक आत्म-वल प्राप्त न हो सकेगा | जिसे तुम अपनी वस्तु कहते हा, उस खब का परित्याग कर दो--सघ का यज्ञ कर डालो । इस सब ऊपरी बल से जब विमुश्ध हे! जेओगे तो तुम्हारी अन्तरात्मा में एक अपू्े ओज प्रकाशित हेगा । वदी ओज्ञ आत्म वलर हा गा । सलुष्य इधर-ड्यर भटकता फिरता है--भौतिक पदार्थों को जुदाकर वलशाली वनना चाहता है। लेकिन वह किस काम आएगा ? अगर ऑल में आन्तरिक शक्ति नहीं है, तो चश्मा लगाना व्यर्थ है । दूरबीन की शक्ति किमी काम की नहीं | इसी प्रक/र आत्म- बल के अभाव में भोतिक-बल निरुपयोगी है। अरे, बड़े-बड़े दिशाल साम्राज्य भोतिक- वले के सहारे कायम न रह सके ! रावण जैसे पराक्रमी योद्धा को उसके भोतिक-वल ने कुछ भी सहायता नहीं पहुँचाई । दुर्धोधित की कोटि सेता का सारा वल कुणिठत हे। गया ! तुम्हारे पास कितना-सा बल है, जिसझ्षे कारण तुम फूले नहीं समाते ! आत्मवली को प्रकृति स्वये सहायता पहुँचाती है। दन्त-कथा प्रसिद्ध है कि एक व(र बादशाह अकवर, महाराणा प्रताप की परीक्षा करने के लिए फक्रीर का भेप वन्ाकर आया था। उस समय महाराणा को प्रकृति से लहायता मिली थी | समुद्र का पानी स्वभाव से स्थिर है, पर पवन की प्रेरणा से वह चचल वन जाता है। पानी का खभ्ाव स्थिर रहने का है परन्तु पानी का पत्र अश्नि पर रख दिया जाय तो अप्नि की प्रेरणा से पानी उबलने लगता है। एऐजिन में अधि की प्ररणा से पानी वाष्प रूथ में परिणत होत। है और वह वाष्प ही सारी गाड़ी के एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है | इस प्रकार गाड़ी का व्यवहार प्रेरणा पर ही निभर है । ' हीक इसी तरह कर्म की प्रेरणा से. आत्मा अपनी गाड़ी चौरासी लाख योनियों में दौड़ाय। करता है। मगर अब आत्मा को भवश्भमण की दौड़-धूप रोक कर अपने को स्थिर करना चाहिए | आत्मा की स्थिएता के लिए कर्म गहित--अकिय होना आवश्यक है | ज्ञेसे पानी अपने खभाव से वहीं वरन अश्नि की प्रेरणा से उत॒लता है ओर वह प्रेरणा आगन्तुक-ओपाधिक--होने से मिठाई जा सकती है, इसी प्रकार शात्मा को भवच- भ्रमण करने की तथा अस्थिर रखने की प्रेरणा कराने वाले कर्म हैं । कर्म की यह प्ररणा वाह एवे कृत्रिम होने से अठकाई जा सकती है । इसील्हिए भगवान ने फ़रमाया छ्लेकि पूर्वे-संचित कर्मो का क्षय करने से जीवात्पा अक्िप दशा को प्राप्त देततः हे और अन्त में लिए, घुछ और स॒क्क होकर शान्त हो जाता दे ! . .




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