मनुष्य जो देवता बन गये | Manushy Jo Devata Ban Gaye

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अर्वकटूतथ हे अत बिश्लेरती हुई बोल उठी--“जाओ कुणाल, जाओ; पर यहे सुनते; जाओ । तुम्हारे जिन नेत्रों ने आज कुझ्के पागल बना,दिया, है। उन्हें में प्राप्त करके ही सन्‍्तोप की सांस लूंगी |” 7? ज्यकड किन्तु कुणाल ने तिष्यरक्षिता की ओर ध्यान तक न दिमपन बह द्रुतगति से चलकर अपने भवन में पहुंचा । किन्तु उसे शांति न मिली । रह-रह कर तिष्यरक्षिता का वासनामय चित्र उसकी आंखों के सामने आने लगा, और वह रह-रह कर सोचने लगा-- जिस राज्य में, जिस पृथ्वी पर मां बेटे की ओर वासनामयी आंखों से देखे, वह्‌ राज्य और वह पृथ्वी क्या किसी मनुष्य के रहने योग्य है? नहीं, कदापि नहीं, कदापि नहीं !”” कुणाल कई दिन और कई रात तक बराबर यही सोचता रहा, ओर अन्त में अपनी स्त्री धर्मरक्षिता को लेकर काइमीर चला गया और संन्‍्यासी की तरह कुटिया में रहकर जीवन व्यतीत करने लगा। किन्तु तिप्यरक्षिता के मन में शांति कहां? कुणाल ने भत्सना की जो कोल उसके हृदय में चुभोई थी, वह्‌ उसकी पीड़ा से तड़पने लगी, और साथ ही करने लगी कुणाल के सर्वनाश का पड्मंत्र | अज्ञोक की महारानी तिप्यरक्षिता। उसका पड्यंत्र अवल जाल वन कर वि गया। वीतराग कुणाल उस जाल में फंस जाए तो विस्मय ही क्या ? एक दिन संध्या का समय था। कुणाल श्रीनगर के समीप एक कानन में अपनी कुटी के द्वार पर बैठा ध्यान-मग्द था। सहसा उसकी कूटो से कुछ दूर मनुष्यों का रव सुनाई पड़ा और वह आंखें सोल कर उसी ओर देखने लगा। उसने देखा कु छ मनुष्यों का एक दल भागा हुआ आ रहा है, और उसके पीछ है अश्वारोही सेनिकों का झृण्ड। कुणाल उसी ओर ध्यान से देख ने लगा ओर साथ ही अपने मन में कुछ सोचने भी लगा। अभी कुणाल की दृष्टि उस मोर लगी ही थी, कि वे मनुष्य दोड़ते हुए




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