कला और साहित्य | Kala Aur Sahity

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कला, श्रम और चितन / १७ ओर क्षमा का उपदेश दता है और इस तरह मन और वचन मे अय वस्तु रखन जैस दुरात्मा का काम करता है जौर सदात्मा का स्वाग भरता रहता है। बहू अपनी बातो से अपने श्रोता को समझवर स्वीश्त होनेवाली बातें नही देता, वह्‌ अपने श्रोता को निरुत्तर करता है। इस तरह अध्यापव और राजनीतिज्ञ अपन चरम अज्ञान वी सतह पर साथ साथ चलते हैं और हमारे प्राचीन ग्राथ के इस कथन क॑ साथ कि-- “अपूज्या यत्र पूज्यतै पूज्य पूजा तिरस्कृता । त्रीणितन्न भधिष्यात दुभिक्ष मरण भय ९” सो सूझ और ज्ञान का दुर्भिक्ष, सम्पनता का मरण और अधिकार का भय, तीनो पैदा हुए बिता नही रहते। अध्यापक के पास उसके उच्चतर उत्तरदायित्वी भयह भी हांता है कि वह ज्ञान के रूप मे--गथालय में जाकर--अपमी प्राचीन सस्कृति सचित सन्तत्व अपरिमित त्याग, निगूढ चितन और समस्याआ के सुलझाव के इतिहास से ऋण लेता है और अपन विद्याधियों वी पीढी को ईमानदारी से बाट देता € क्लु अधिकार विजित 'राजनीतिज्ञ को अध्ययन और समस्याओ स क्या लेता दना । इस देश के चिन्तक की बेचनी यह है कि प्रेरणाएँ लेकर जगत को जीवन और वान दनतवाले लोगा वी लगभग एक हजार वप पहले ही परिसमाप्ति हा गमी--एसी धारणा लोगो में बद्धमुल हो गयी और वे समझने लगे कि विजय और महानताओं के भारतवप की शताब्दिया तो जान कब की बीत गयी। इस भावना स दो काम एक साथ हूते है--प्राचीन के प्रति श्रद्धा दिखान स जब जीवन नाराज नही हाता, वरिक पअ्रसन ही होता है और प्राचीना की प्रशसा कर दन के सिवाय अपने लिए कुछ बाकी नही रह जाता। इस तरह हमारी श्रद्धा वा बहाना, हमारी अक्मण्पता को छुपान का एक सफ्ल हथियार बन गया है और एक हजार वप तक गुलामी म प्रयोग वरत करते हम थद्धा के दुरुपयोग क प्रयोग मे इतन पदु हा गये हैं कि अब यदि एवं पीढी इस व्यवस्था से विद्रोह करती है, तो वह पूरे प्राचीन नध्ययन से सचित श्रद्धा से ही विरोध प्रारम्भ करती है । जिस जगत्‌ को हम एव समयते हैं, वह्‌ अनक ठन्‍्तुओ से बनवर एवं हुआ है ( इस देश के उत्तयन मे मनो- वैज्ञानिव उपचार की आवश्यकता है। यह केवेल वैभानिक ओविप्कार लेकर.




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