आदिपुराण भाग - 2 | Aadipuran Bhag - 2

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Aadipuran Bhag - 2  by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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/ री हे प्‌ पड़बविद्वतितमं पव ज्च्च्ि न राचाठटताशणग्गयात्सएपुप्प प्रकट्शामिना, । सरित्तीरभ्षत्रा<दश ज्जको बासतरदि गता ॥141०१॥ लतालूथपु ग्ग्येपु रतिस्स्थ प्रपश्यत:। स्वय गलस्परसनोवरचितप्रस्तर/वभूत ॥1०२॥ क्वचित्लतायुहान्त ग्थचन्द्रकानतशिलाशितान्‌ । स्वयश्ोगानससक्तान किन्नरन्‌ प्रश्ुस्षम ॥१०४॥ क्वचि्लता, प्रसनपु विलीनमशुपावछी, । विछोय्य स्रस्तकेशीना सम्मार प्रिययोपिताम्‌ ॥१०४॥ सुमनोवर्षसातेनु प्रीत्येबास्थाविम् अजम । पचनाधतन्ासाग्रा: प्रफुछा सार्गशाखिनः ॥१००॥ सच्छायान्‌ सफलानू तुडइगान सवसमाग्यसपदः । सागठुमान्‌ समगडाक्षात से नृपाननसुकुचत, ॥१०६॥ सरस्तीरभुवो5पच्यत सरोजरजसा तता;। सुवणकुद्धि माण्द्वामध्चन्यह्मदि तन्‍्वर्ती ॥॥०७॥ बलरणुभिरास्द्ट दोपांमन्य नमस्यसों | करुण रुवती वीक्षातक्र चक्राहकामिनीम ॥१०८॥ गया गणानथापच्यदुगोप्पदारण्य चारिणः । क्षीस्सेधानिवाजस्त क्षरत्क्षीर'छुतान्तिकान्‌ ॥१०६॥ सोरभेयान्‌ स ऋक्ञाग्मसमुत्मातस्थलाग्वुजान । रुणारानि यशासीव किरतो5्पव्यदुन्मदान ॥1%१०॥ « मय सकल नम न पल अप हटमेप अन्‍य अपर पक सारस आदि पक्षियोसे मनोहर हैँ, और जो बिछी हुई शब्याओके समान जान पडते है ऐसे _ नदी-किनारेके प्रदेशोपर महाराज भरतकों भारी सन्‍्तोप हुआ ॥१००॥ जो किनारेपर लगी हुई लताओके अग्रभागस गिरे हुए फूलोके समूहसे सुणोभित हो रही है और जो जलके प्रवाहसे उठी हुई लहरोसे व्याप्त हैं ऐसी तदियोके किनारेकी भूमि भी भरतेब्वरने बडे प्रेमस देखी थी ॥१०१॥ जिनमें अपने-आप गिरे हुए फूलोके समहसे शय्याएँ बनी हुई हैं ऐसे रमणीय लतागृहोको देखते हुए भरतको उनमे भारी प्रीति उत्पन्न हुई थी ॥१०२॥ उन भरत महाराज- ने कही-कहीपर लतागृहोके भीतर पडी हुई चन्द्रकान्त मणिकी भिलछाओपर बंठे हुए और अपना यणगान करनेमे छंगे हुए किन्नरोकों देखा था ॥१०३॥ कही-कहीपर छताओके फूलोपर वेठे हुए अ्रमरोके समूहोको देखकर जिनकी चोटियाँ ढीली होकर नीचेकी ओर लटक रही है. ऐसी प्रिय स्त्रियोका स्मरण करता था ॥१०४॥ जिनकी शाखाओके अग्रभाग वायुसे हिल रहे है ऐसे फूले हुए मार्गके वृक्ष मानों बडे प्रेमसें ही भरत महाराजके मस्तकपर फूलोकी वर्षा कर रहे थे ॥१०५॥ वह भरत मार्गके दोनो ओर लगे हुए जिन वृक्षोको देखते जाते थे वे वृक्ष राजाओका अनुकरण कर रहे थे क्योकि जिस प्रकार राजा सच्छाय अर्थात्‌ उत्तम कान्तिसे सहित होते है उसी प्रकार वे वृक्ष भी सच्छाय अर्थात्‌ उत्तम छाहरीसे सहित थे, जिस प्रकार राजा सफल अर्थात्‌ अनेक प्रकार॒की आयसे सहित होते है उसी प्रकार वे वक्ष सफल अर्थात्‌ अनेक प्रकारके फलोसे सहित थे, जिस प्रकार राजा तुग अर्थात्‌ उदार प्रकृृतिके होते है उसी प्रकार वे वुक्ष भी तुग अर्थात्‌ ऊँचे थे और जिस प्रकार राजाओकी सम्पदाएँ सबके उपभोगमे आत्ती है उसी प्रकार उन वृक्षोकी फल पुष्प पल्‍लव आदि सम्पदाएँभी सबके उपभोगमे आती थी ॥१०६॥ जो सरोवरोके किनारेकी भूमियाँ कमछोकी परागसे व्याप्त हो रही थी और इसीलिए जो पथिकोके हृदयमे 'क्या यह सुवर्णकी धूलियोसे व्याप्त है,, इस प्रकार णका कर रही थी, उन्हें भी महाराज भरत देखते जाते थे ॥१०७॥ सेनाकी धूलिसे भरे हुए और इसीलिए रात्रिके समान जान पडनेवाले आकाममे रात्रि समझकर रोती हुई चकवीको देखकर महाराज भरतके हृदयमे वडी दया उत्पन्न हो रही थी ॥१०८॥ कुछ आगे चलकर उन्होने जगलोकी गोचरभूमिमे चरते हुए गायोके समृह देखे, वे गायोके समूह दूधके मेघोके समान निरन्तर झरते हुए दूधसे अपनी समीपवर्ती भूमिकों तर कर रहे थे॥१००॥ जिन्होने अपने सीगोके १ चटलता। “कूठ रोवण्च तीरब्ब तट त्रिपु इत्यभिवानात्‌ 1 २ क्शेप । ३ रजसा-त्व० | ४ आत्मान दोपा रात्रि मन्यत इति। ५ क्रिब्राविभेषणाना नपुसकत्व दिर्त तव्या । ६ आलुलोके । ७ गोगस्यवन । झ




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