मैं न जानू कौन पराया | Mai Na Janu Kaun Paraya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दृष्टिकोण भगवान महावीर का गर्म से लेकर निर्वाण तक की जीवन यात्रा मे स्पष्ट रूप से परिमाषित होता है। वे जहा भी गए, जिन्होने, चाहे उन्हे सुख दिया हो या दुख। अनुकूल हो या प्रतिकूल। रागी हो या द्वेषी। पर उनकी में की धारा उन सबके लिए भी एकात्म भाव के रूप मे प्रवाहित होती रही। कर्मो की गदगी साफ होती रही और एक दिन, में का विराट स्वरूप पूरे लोक मे विस्तीर्ण हो गया। वे सब कुछ पा गए कृत-कृत्य हो गए। आध्यात्मिक गहराइयो मे उतारने वाला “मैं” व्यवहारिक समस्याओ का भी पहले समाधान करता है। जिन्दगी मे होने वाले हानि-लाम, उत्थान-पतन के बीच यह समझने की आवश्यकता हे कि मेरा है वह जाता नहीं, जो जाता है वह मेरा नही। ये विचार भी किसी हद तक व्यक्ति को सतुष्ट करने वाले होते हें। निश्चय मे तो यह शाश्वत सत्य है कि जितनी वस्तुए इन्सान ऊपर से एकत्रित करता है उन्हे जाने के पहले यही छोडकर ही जाना होता हे। इसमे परमप्रिय समझा जाने वाला शरीर भी है। वह भी यही रह जाना है। मानसिक स्थिति को समतोल बनाए रखने के लिए यह प्रखर चिन्तन व्यक्ति को मानसिक स्तर पर निश्चिन्त बनाए रखता है। यही चिन्तन आगे से आगे बढ़ता हुआ चरमोत्कर्ष मे परमरूपता पा जाता है। “मैं” को समझने के लिए सतत चिन्तन एव स्वाध्याय की अपेक्षा हे। भगवान महावीर ने आचाराग सूत्र मे भव्यात्माओ को सबोधित करते हुए कहा है- “सपेहए अप्पग भप्पएण” हे भव्य आत्मन्‌ | तू अपनी आत्मा से अपने को ही देख दुनिया मे भी दुनिया को नही, अपने को देख। सब जगह जब स्वय को देखेगा तो द्वन्द समाप्त हो जाएगे। यदि तुम्हे लडने की इच्छा भी हो जाय तो दूसरे से न लडकर अपने से लडो। जेसा कि प्रमु कहते हें- अप्पाणमेव जुज्ञाहि कि ते जुज्ञझेण बज्ञओ | हे आत्मन | अपने आप से युद्ध कर, अन्य किसी से युद्ध करने मे कोई लाभ नही है। क्योकि जो दूसरो से युद्ध करने वाला है, वह कभी नहीं जीतता। बल्कि जीतकर भी पराजित हो जाता है। अत युद्ध अपने ही कृविचारों से किया जाय, उन्हे सघोधित कर स्वच्छ बनाया जाय। प्रभु ने कहा है- अप्पाणमेव मप्पाण जइत्ता सुह मेहए। (25)




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