कर्त्तव्य कौमुदी भाग - 2 | Kartavya Komudi Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बा फाऊ, कर्त्तव्य-कौमुदी ७ भ्क्तिनों यदि तावती प्रथमतः सोत्साइमड्टीकुरु, पश्चाणुप्तकामि धर्मविधिना सम्यक समीपे गुरोः ॥21॥ सम्यक्चारिप-प्रकरणमे अतका पालन! भावाये--हे भव्य ! शांख्रके रहस्यफो जाननेवाठे मुनिसते बता के लक्षण मिन्नर जानकर जिस प्रकार आनन्द नामके आ्रायकने सम सतत बर्तेफी अदी तरह समझकर धारण फ्रिया, उसी प्रकार तुम भी अन्लीकार उसे! यदि इस समय सम्पूर्ण अत ग्रहण करनेक्री शक्ति नहीं हे तो प्रथम भुर के समीप पच अणुब्तकी उसाह सहित खिंधे पूर्वक सम्यऊप्रकार अज्ञीकार करो ॥ ८ ॥ # 05५. अद्विसावतम्‌ ९ रहया ययापे सबेजीवनिवह्माक्षत्रापि जीवास्त्रसा- वेश्िप्टयन हि तदयरेडतिदुरित तरपाम्निहन्यात्न तान । नाप्पस्पेन विधानयेत्फथमापे व्यर्थ ने च स्थायरान्‌ हिंसात्याग-विधायक पतमिद धर्मेच्छया पाछयेव्‌ ॥९॥ अद्विसावत | भावाये--यथापे मनुष्यमातक्ों तरस और स्थारर सम्पूर्ण जीयो की रक्षा करनी चाहिये । तौभी चने करनेवाले जसजीयोंकी गिशेष रूपसे रक्षा करनी चाहिये। क्योंकि उसजीयोंकी हिंसासे भयक्र पाप उत्पन होता है | इसील्यि इन जऔरेंडी हिसा कदापि सथ ने करें, और न दूसरोसे करबाप्रे | पिशेष कारण ऐिना व्यर्थ स्थायर एफ्रेन्दरिय- जीगेंरी भी हिंसा न करे, इस हिंसा--यागरूप अहिंसातनतको धर्मबुद्धिसे बटन करना चाहटियि।




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