उज्जवल तारे | Ujjwal Tare

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Ujjwal Tare by अयोध्यानाथ शर्मा - Ayodhyanath Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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व छज्ज्वज्ञ तारे पातिध्रन-धर्म उत्तना हो ज्वलत है, जितना भगवान्‌ रामचढ़ की अर््धागिनी का या किसी एक-पतिवाली सत्ती खो का। यह उसके पातिनत-घर्म का ही प्रताप था, जो कौरे की सभा में भगवान्‌ ने उसकी ल्लाज रखां। पातिब्रत-घर्म के सबंध में उस समय भी वही भाव थे, जो ऋाज हैं, बल्कि यह फहिए कि स्रियो का सतील-धर्म ही उस समय हिदू-ससमाज की रक्षा कर रहा था। पति के सग जलकर सती हा जाने की प्रथा उस समय भी थी और नकुत्त-सद्ददेव की माता, माद्रों, अपने पति याडु के साथ एक चिता पर जल्लकर पति के पीछे- पीछे ख्र्ग गई थी। परतु सभी स्त्रियाँ नहीं जलतो थीं। वे पति के पीछे भी ससार में रहकर अपना धर्म निबाहती और करत्तंव्य-पालन करतो थीं। उस सभ्य स्त्रियाँ शास्त्र समभतोीं और शास्त्र की चर्चा भी करती थी। पर यह कल्पना रूढ़ है| चली थी कि स्त्रियो का मोक्ष का अधिकार नहीं है--जेसा कि, गीता के एक श्लोक से प्रतीत होता है। कज्षत्रिय-राजपुरुषपाो और राजस्त्रियों फे इस वणन से उस समय को सबंसाधारण र्त्रियों फी स्थिति का भी अमुमान हा सकता है । चातुर्वश्य-व्यवस्था उस समय फी परिस्थित्ति में एक बात विशेष रूप से यद्द दिखाई देती है कि अद्य बल से ज्ञाच-बल की प्रतिष्ठा अधिऊ दो




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