वैद्य चंद्रोदयः | Vaidhyachandrodaya Vol Ii

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Vaidhyachandrodaya Vol Ii by कल्याण श्री जी - Kalyan Shri Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीः । से जे वद्यचन्द्रादय: । भाषानुवादसमेतः । अथ मडुलावडलोकः ॥ १ ॥ श्रीमत्सिन्दूरपूरारुणतनुरतनुद्योतितांशो गणेशो दानाम्भःपानलो भात्पपतमधुकरश्रेणिभु चैदे धान: दूरीकृत्वान्धकारं दिनमणिरिव यः संस्थितः सिद्धिदाता निर्विन्न॑ विन्नराजों वितरतु विपुर् सर्वदा मज़्ल नः॥ १॥ बडेचोबे ग्रसिद्धो5हं राधाचन्द्रो मिषक्तविः । कुर्वे सुबोधिनीं टीकां वेद्यचन्द्रोदयस्थ वे ॥| १॥ सुंदर सिन्दूरकर पूर्ण छाछ अंग शोभायमान है अंश जि- नके ऐसे गणेश गण्ड्थलूके मदजलके पानके छोभसे अमरसमूह जोरसे पड रहेह्टें तिन्हे धारण किये अंधकारसमूहको नाश करके ऐसे सिद्धिकों देवेवारें विन्नराज निर्विन्नपूर्वक्त हमको अति मद्गल दो ॥१॥ आविभूता हिमाद्रेरतिनिपुणतया मेनया स्वेः पयोभिः सिक्ता बालारुणश्रीकरचरणतल्द्योतिता स्मेरपुष्पा । न्यश्वद्धक्षोजगुच्छट्युतिरतु लशिवस्तम्भमालम्बमाना नित्य वाज्छानुरूप मम फलतु फल पार्वती कापि वल्ली ॥२॥ हिमाचछके अत्यन्त चतुरतासे पेदाभमई मेनाने निज दुग्ध- रूपी जलसे सीची प्रातसूयेसरीखि अरुण करचरणके तर शोभा- यमान सुंदर पुष्पवारी मिलेमये स्तनरूपी गुच्छ हे जामे मोटे महादेवरूपी रूंमसों लिपटी ऐसी पार्वती कोई एक छता मेरेकू नित्य इच्छानुकूछ फलको दो ॥ २॥




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