न्यायसिद्धान्त मुक्तावली | Nyayasiddhant Muktavali

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Nyayasiddhant Muktavali  by धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री - Dharmandranath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) इसी प्रकार 'सादश्य' को यदि कोई 'बदाघ मात्रा जाय, तव तो यह प्रश्न उठता है कि वह सातों पदार्थों के अ तगठ नहीं जा सकठा अत एक अचग पदार्थ होगा। परातु “धादुश्य” कोई पदार्थ नहीं है। प्रह्युत किसो पदाथ के भिन्‍न द्वाने पर भो उस पदाथ के बहुत से घर्मे दूसरे पदार्थ मं पाए जाये तो उप्ते ही 'छादृश्य” कहते हैं। जँसे, मुख चर्द्र से भिन्‍न है तो भी उसपे चन्द्रमा + घम आह्वाइक्त्व” आदि पाये जाते हैं । इन्हीं समान घ॒र्मो का पाया जाना 'सादुश्य' है । ये समान धम द्वब्य, गुण, कर्म, आदि के ही अतर्गत होते हैं। इसलिये सादुश्य कोइ पुथक्‌ पदाथ नहीं है । सिं० मु०-द्रव्याणि विभजते-- का०-द्षित्पप्तेजोमस्दव्योमकालदिग्देहिनो मनः । द्रव्याणि, न झनु०-द्वव्यों का विभाग किया जाता है-- परथिवी, जल, तेजस्‌, वायु, आकाश, काल, दिकू, आत्मा और मनस्‌ द्रव्य हैं । सि० मु०--क्षिति पुथिवी, आपो जलानि, तेजों वह्ति , मरुद्‌ वायु , व्योम आकाद , काल समय , दिय्‌ झाझ्ा, देही झ्लात्मा, मन एतानि नव द्रब्याणीत्यर्थ । झनु०--क्षिति अर्थात्‌ पृथिवी, आप अर्थात्‌ जल, तेजस्‌ अर्थात्‌ अग्नि, मरुत्‌ अर्थात्‌ बायु, व्योमन्‌ अर्थात्‌ आकाझन, काले अर्थात्‌ समय, दिक्‌ अर्थात्‌ दिशा (आश्ञा), देहिन्‌ अर्यात्‌ आत्मा, और मनस्‌ ये नौ द्रव्य है-यह्‌ (कारिका का) अर्थ है । सि० मु०-ननु द्रव्यत्वजातो कि मानम्‌ ? न हि तत्र प्रत्यक्ष प्रमाण, घृतजतुप्रभूनिषु द्रव्पत्वाग्रह्मदिति चेत्‌ ? न, कार्यतमवायिकारणता5वच्छेद- फता, सयोगस्य विभागस्य वा समवापिका रणतावच्छेदकतया तत्सिद्धेरिति अनु०--यह घद्ढा हाती है (ननु। कि द्रव्यत्व” जाति मे क्या प्रमाण हैं ? उसमे प्रत्यक्ष प्रमाण ता है नही, क्योंकि घर और लाख (जनु) आदि में (साधारण लोगो हो) 'द्रयत्व” की प्रदोति नही होती । (उत्तर देते हैं कि) यह झड्छा नही करनी चाहिए (न), क्योंकि कार्यमात्र वी समवायिकारणता के अवच्छेदक के रूप में अपवा सयोग या विभाग को समवापिकारणता के अवच्देदक रूप मे द्रब्यत्व जाति को सिद्धि होतो है। (देखो व्यात्या)। रे




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