ध्वन्यालोक | Dhwanyalok

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Dhwanyalok by आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिः - Acharya Visheshwar Siddhantshiromani:

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका ९ अर्थके भावन द्वारा रसकी चवणा कराना । भग्टनायकके कहनेका ताथय॑ आधुनिक झन्दावहीमें यह है कि काव्यगत शब्द पहले तो पाठक्कों अर्थरोघ कराता है, फिर उसकी क्व्यनाकों जाएत करता है और तदनतर उसके मनमें वासनारूपसे स्थित स्थायी मनोविकार्रोकों उद्जुद्ध करता हुआ उसको आनन्दमग्न करा देता है | उनका यह सम्पूर्ण प्रयत्न इस तथ्यकों स्पष्ट करनेऊें लिए है कि शब्द और अर्थरे द्वारा काव्यगत 'उस विचित आनन्दःवी प्राति वैसे होती है। जशँतय का यानन्दवे खरूपका प्रश्न है, भह्नायक्कों उसके विषय कोइ भ्रान्ति नहीं है | वे जानते हैं. कि यह आनाद बासनामूलक तो अवश्य है, परत पेदल वासनामुल्क आन दवे अन्य रूपोंसे इसका वैनि-य स्पष्ट है | बास्तवमें, जैसा कि मैंने अन्यत् स्पट किया है, कायानद एक मिश्र आनद है--इसमें वासनाजन्य आनन्द और बौद्धिक आन द दोर्नोका समवय रहता है | उसके मिश्र ख्ल्पफो एटीसनने कल्पनाका आमन्द वहा है जो मनोविशनयी दृश्सि टीक भी है क्योंकि कस्पना चित्त और बुद्धबी मिश्रित किया दी तो है । इसी मिश्र रूपकी व्याख्यामें [यद्यपि भठनायकने खय इसवों अपने शब्दोंमिं यक्त महीं किया है और इसका कारण परम्परासे चला आया हुआ 'अनियचनीय! शब्द था] मद नायकने भावकत्व और मोजक्त्वकी कल्पना की है--भाववत्व उससे बौद्धिक अशवा हेतु है और भोजकत्व उसके बासनाजन्य रूपया व्यार्यान करता है। अमिनवने ये दोनों विश्पताएँ अग्रेली व्यञ्ञनामें मानी हैं । व्यक्षना ही हमारी फल्पनाकों जगावर हमारे वासनारूप ग्थित मनोविजार्गेती घरम परिणतिके आन-दका आख्वादन कराती है | इस प्रकार मूलत भावयत्व और भाजस्ल दार्नोंका उद्देश्य भी वही ठहरता है जो अकेली व्यज्ञनावा | व्याकरण और मीर्माण आदिके सहारे व्यज्ञनावा आधार चेंकि अधिक पुष्ट है, इसलिए अततोग्रत्वा वही सर्वमाय हुइ। भद्ननायक्की दोनों झक्तियाँ निराघार घोषित कर दी गयीं | इस प्रसार अमिधावादियोंका यह तक सण्डित दो जाता है कह्लि अमिधाका अथ ही तीरकी तरह उत्तरोत्तर शक्ति प्राप्त करता जाता है | बादमें मद्दिममइने “यद्ञनाका प्रतिपेध क्या और कद्दा कि अमिधा ही ध्ब्दकी एक्मान शक्ति है, जिसे व्यज्ञय कद्य जाता है बह अनुमेयमात्र है, तथा -यश्ञना पृवठ्िद्ध अनुमानके अतिरिक्त और बुछ नहां। ये वाच्यार्थ और न्यद्भयायर्मे ययज्ञर यद्भघसम्बध न मानकर ल्द्वल्ज्ली सम्ब'्घ ही मानते हैं । परन्तु उनके तम्ोंका अम्मटने अत्यत युक्तिपृवक सण्टन किया है। उनकी युक्ति है कि सर्वत्र ही थधाच्यार्थ और व्यद्गघाथर्मे लिट्विल्ट्रीमम्य घ द्योना अनिवाय नहा है। लिट् लिट्वीसम्बध निश्चयात्मक है अथात्‌ जट्दों लिड्ि [साधन या देव] निश्चय रुपसे बतमान होगा, वहीं लिज्ली [अनुमेय वस्तु] का अनुमान स्यि जा सकता है। परतु ध्वनिप्रसड्नमें वाच्यार्थ सदा ही नि*चयात्मर हेतु हीं हो सकक्‍ता--बह प्राय >नैकान्तिक होता है | ऐसी स्थितिर्म उसे व्यद्नया4रूप धमत्कारये अनुमान हेतु कैसे माना जा सकता है ! मनायित्यनवी इग््सि भी महिममदका तक अधिक स्टत नहीं है क्योंकि जनुमानमें साघनसे साध्यकी रिद्धि तक या बुद्धिके द्वारा दवंती है, पर ध्वनिर्मे वाच्याथसे पयद्भयार्थरी प्रतीति तकक रुद्यरे न दवोकर सद्ददयग [मायुकता, कल्यनाओं आदि] के द्वारा होती है । अर मांक्त िउणा] वादियोंकोी लीजिये। उनका कहना है रवि दास्यार्थक्रे अतिरिक्त यदि कोइ दूसरा अथ होता है तो बदद वुथ्यायक्षे ही अतगत आ जाता है। व्यद्षघाथ ल्थ्याथका ही एक स्प गा रक्षणासे मित व्यक्ना जैसी कोई शक्ति नहीं है। इस मठया खण्डन अधिक सरल है ।




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