वैदिक धर्म की जय | Vaidik Dharma Ki Jay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दृश्य पु प्रथम प्रकरण की सदक--पता नहीं; मद्दाराज आपके थाने से 'पूर्व भी उन्दोने' छापसे मेंट काने की इच्छा प्रकट की है । मैं' चाहता हूँ कि ' छाप वश्य मेरे स्वामी फी इच्छा पूर्ण करें . परिडत जी--शच्छा भाई ! चलो । मुझे कया इन्कार है। 'वलो ' बठो । (| दोनों स्वामी! जो की भोर चचहति हैं ।'संन्याप्ती जी उन्हें श्राता' ' देख टहकना शिारस्ग कंग देते हैं ।” श्रति' निकट है कर दोनों सादर नमस्ते फहते हैं श्रौर सन्यासी जी संप्रेम नमस्ते केकर--) सन्पाधी-मैं ापके 'दशैन 'करके अति प्रसन्न हूँ। मेरी इच्छा है , कि में कुछ झाप से वि्वार-परिवतन करूं। फद्िये, छुछ समय' 'निकाल सकते हैं * ' कर प्डित--मद्दागज ! श्माप क्या कहते हैं । मैं तो भगवन्‌ ! 'झपने जीवन को भाग्यशाली सममाता हूँ कि शाप सर्रीखे ' झनुभवी संन्यासी के साथ मान संलाप क़ा सु-अवसर मिल रहा है, । मैं राज से नित्यप्रति प्रात कालीन सन्ध्या के झनन्तर दो घटा श्यापकी सेवा से सभर्पितत करता हूँ ।- , सन्यासी--( प्रसन्न बदन. से ) वाह वाह. 'झापका छाति - घन्यवाद । तो झच्छा; त्माप कृपयी 'घतलावे! कि ार्यों का । छौननसा धरे है 1 1! 1. ' + प । दुशिडत-सैं समझा नहीं किं 'ापका धर्म-प्र्न से 'क्या''्माशय-है | क्या'श्याप'थार्यों की कर्तव्य पूछ रहे हैं या मत. सन्याहती--द्वा, हा !. मेरा भाव-सत-प्रभ्न से है । जसे मुसलमानों का ' इस्लाम, ईसाईयो का ईसायत; घौड़ो'का बौद्ध, ' जेनियो का “ सेन रे पौराशिकों का पौराणिक मत श्ादि है । इसी 'प्रकार न््य द्यार्थों का कौन-सा मत है है. *. +. ८




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