लोक साहित्य माला | Loc Sahitya Mala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सतजुग का श्वारंभ द दुरिद्रता-जिसको देखकर रोयें खड़े हो जात हे. जी दल जाता है-- उन अपकारियो पर कोई प्रभाव नहीं डालती । वे कहते है कि ये तो सदा के द्रिद्री हैं, पशु है और दमारे सुख के लिए बनाये गण्हें। उनकी कल्पना मे इन गाँवों के सुख के दिन :्ात दी नहीं । आजकल की पच्छादी' कल-पुरजो की सभ्यता से जिनकी आंखे चौधियों राई हैं, पच्छोद्द की माया से जिनकी वुद्धि चकरा गई हैं, व सोचते हैं कि मजूरो और किसानो की दशा पहले कभी अच्छी रही हो, ऐसा नहीं हो सकता और भाज तो इनकी दशा सुधारने के लिए चड़-वड़े कल कारखाने खुलने चाहिए । क्या इनके विचार ठीक है ? क्या नजूर और किसान पहले अधिक सुखी नहीं थे?! क्या पहले भी आज की तरद खेती से इनका गुज्चारा नहीं होता था” इन चातों पर विचार करने के लिए हमे प्राचीनकाल की सैर करनी चाहिए । ९, सतजुग का आर भ सतजुग की चचा हमने चहुत सुनी है. पर हम नहीं जानते दि सतजुग किसे कहते है। पशिडत लोग बताते है कि ब्रह समय वहुत- बहुत दिन हुए बीत गया । लाखो बरस की वात है। नेक पढ़ें-लिखे कहते है कि कई लाख नहीं तो कद इज़ार चरस तो ज़रूर बीत गए हैं। चाहे जिनना समय वीता हो बेत्तीग जिसे बेद का युग कहते हैं उसीकों सतजुय भी कहा जाता है। पश्डितो का यह भी कहना है कि भारत के लोग आय है, और आय का सीघा-साधा अर्थ किसान है। आर्य किसान को कहत हैं । इस चात की गवाही बदो से भी चकक, * रमेशचन्द्र दत्त रचित श्रप्रेज़ी के 'प््रचीन भारत मे सभ्यता का इतिहास, पृष्ठ 3५. |




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