जैन कथाएं | Jain Kathaen

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Jain Kathaen by श्री पुष्कर मुनि जी महाराज - Shri Pushkar Muni Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पसिद्धसेन सूरि और विक्रमादित्य : प्रथम सम्पर्क ७ |. दो अर्थवाले, हिलिष्टपदी और लक्षण-व्यंजना शब्द- शक्तियों से युक्त देववाणी संस्कृत में रचित उक्त श्लोकों को सुनकर राजा विक्रमादित्य इतने चमत्कृत और प्रभा- वित हुए कि श्रद्धाभिभूत होकर सिंहासन से नीचे उतरे े के, और'हाथ जोड़कर महापण्डित सूरीशवर जी से बोले-- “हे प्रभो ! हाथी, घोड़े, रथ, रत्न आदि से युक्त भेरे इस राज्य को स्वीकार कीजिए ।” सूरीशवर जी ने राजा से कहा-- “राजन्‌ ! अपने माता-पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त समस्त राजवेभव-को तो मैं पहले ही त्याग चुका । हम जेसे तपस्वियों के लिए तो शात्र-मित्र, स्वर्ण- प्रस्तर, मणि और मिट्टी तथा स्वर्ग और संसार समान ही हैं। भिक्षात्न ही हमारे लिए सर्वस्व है। तुम्हारा राज्य और धन मेरे किस काम का ?” सिद्धसेनसूरि की निस्पृहता और विरक्तिभाव से गद- गद होकर राजा विक्रमादित्य ने वार-बार उनके श्रीचरणों में वन्दन किया । उसके वाद सूरीजी ने अज़्यत्र विहार कर दिया ।




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