संस्कृत - कवि - दर्शन | Sanskrit - Kavi - Darshan

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Sanskrit - Kavi - Darshan by डॉ भोला शंकर व्यास - Dr Bhola Shankar Vyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आसमुख ११ मिलते हैं ।* पर इन सूक्ति पद्मों की शेली निश्चित रूप से इनके इतसे पुराने ( ६०० ई० पू० का ) सिद्ध होने में बाधक है । यद्यपि पाणिति का नाम«अधिक प्रचक्तित नहीं है, तथापि इन प्नों के रचयिता निश्चित रूप से दाक्षीपुन्न वेयाकरण से भिन्न हैं, नाम उनका भी पाणिनि रहा हे'गा। वररुचि के नास से भी कुछ सूक्ति पद्य मिलते हैं और “चतुर्भाणी? में एक भाण भी वररुचि की रचना साना गया है। भाण तो वार्तिककार वररुचि ( या काव्यायन ) की रचना नहीं जान पड़ती, और “चतुर्भाणी' के चारों भार्णों को ईसा की सातवीं सदी से पुराने मानने में हमें आपत्ति है | (साथ ही पद्माप्रान्गतक भाण को हम शूद्वक की रचना नहीं सानते ।) यह हो सकता है कि वररुचि ने कोई काव्य लिखा हो, क्योंकि पतशञ्नकि ने महाभाष्य में वररुचि के काव्य का संकेत किया है--वाररुच काव्यम्‌ पतञ्ललि ( २०० ई० प्‌० )* के पहले कुछ कथा-साहित्य भी निर्मित 'वनलल ली -७कब>मननसपनननयायत घन कान अमन १. सूक्तियों में पाणिनि के नाम से उद्धृत पद्चों मे निम्न पद्म बड़े प्रसिद्ध है जो अलड्डार-प्न्थों में उद्धृत है यह तो निश्चित है कि ये पथ आलनन्दवधेन (ध्वन्यालोककार से पुराने हे । निम्न पच्च बाद के कई आलड्डारिकों ने उद्धृत किये हें--दे ० रुथ्यक का अलड्गारसवेस्व तथा विश्वनाथ का साहित्यदर्पण । उपोदरागेण विलोलतारक॑ तथा ग्रहीतं शशिना निशामुखम्‌ । यथा समस्त तिमिरांशुक॑ तया पुरोपि रागादूगलितं न लक्षितम्‌ ॥ १ ॥ ऐन्द्रं धनुः पाण्डुपयोधरेण शरदधानाद्वंनसक्षतामम्‌ । प्रमोदयन्ती सकलडूमिन्दुं ताप रवेसरभ्यधिके चकार ॥ २ ॥ २, पतञलि जुज्ञ सम्राट पृष्यमित्र के पुरोहित थे। महाभाष्य में वे स्वयं लिखते है--हहु पृष्यमित्रं याजयामः । पतअलि के ही समय ग्रीक सम्राट मिनेन्डर ( मिलिन्द ) ने जिसकी राजधानी उस समय साकछ ( स्यालकोट ) थी, बोड्ों के कहने से मगध पर चढ।ई की थी । मिनेन्डर के राज्य की सीमा पुष्यमित्र के राज्य की सीम। का स्पशे करती थी। मिनेन्डर ने माध्यमिका (राजस्थान मे चितौड़ के पास स्थित नगरी नामक स्थान ) ओर ख्वाकेत पर प्रबल आक्रमण किया था+- अरुणद्‌ यवनः साकेतम्‌ । अरुणदू यवनो माध्यमिकाम्‌ । ( महाभाध्य )




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