खण्डनखण्ड खाद्य | Khandankhand Khadya

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Khandankhand Khadya by चण्डीप्रसाद शुक्ल - Chandiprasad Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बा कक . . ध्चवायबबक़ - ते गन पु की तर < कक न 2 » करा 0 के भा ! ३. है रा ः ५ 1 छँ गा आ के कप न 35% की ह दा । ६ 2) झुंसलमानों ने जीतकर अपदुस्थ कर दिया। श्रीजयचन्द्र का ११८३ 'ई० का एक दानेपेत्र भी मिलता है'। उससे उनका काल स्पष्ट निर्णीत हो जाता. है'। . कहा. जाता है किल्‍ श्रीहर्ष. अ्ह्मविद्यामरण” के लेखक श्रीअद्वेतानन्द के समकालीन*थे, जिनका समय ११६६-६६ ६० बताया जाता है.। नव्यन्याय के प्रवर्तेक श्रीगज्ञेशोपाध्याय ने भी कहा है कि 'एतेन खण्डनकारमतमपास्तम”, जिनका समय ईसा की १३वीं शती बताया जाता है। यह सब देखते हुए खण्डनकार का समय ईसा की १२ वीं शत्ती का उत्तराधे सिद्ध होता हे। ़ पाश्चात्य विद्वान्‌ बूलर ने श्री श्रीहर्ष को यही काल ( ११६६ से ११६३ ६० ) माना है । किन्तु श्री के. टी. तैलज्न इसे: नहीं मानते । वे श्रीहृष को &वीं या १० वीं शती का मानते हैं। बुलर के मत के खण्डन में वे तीन तक देते हैं : १. नेषध का उद्धरण भोज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में मिलता है.। २. वाचस्पतिं मिश्र ने ११ वीं सदी में 'खण्डनोद्धार' लिखकर खण्डन का खंण्डन किया है। और ३. सायणमाधव ने 'शंकर-दिग्विजय' में श्रीहष को श्रीशंकराचार्य के समकालीन ( ७८प८-८५० ३० ) बताया है | किन्तु बूलर ने इनके इन तकों का खण्डन भी कर दिया है। वे कहते हैँकि . “उसवती-कण्ठाभरण' का काल निम्वित नहीं है. और झ्क्षमें दिये गये उद्धरण भी सही नहीं । दूसरे तर्क के बारे में वे कहते हैं कि 'खण्डनोद्धार' के लेखक वाचस्पति पड़दर्शनों के टीकाकार बाचरपति से भिन्न कोई नये बाचस्पति हैं। काशी के परिडतों का भी यही विश्वास है । कारण वाचस्पति मिश्र ने अपने न्यायसूची-निबन्ध' में कहा ड्टै कि मैंने इसे विक्रम संवत्‌ ८ध्म ( ८५४१ ई० ) में रचा है । तीसरे तक के बारे में बुलर कहते हैं कि सायश-माधव का वक्तव्य ऐतिहासिक विश्वसनीय नहीं है। कारण उन्होंने शह्ुर, बाण आदि को, जिनका परस्पर भिन्नकालिक होना निश्चित हे, वहाँ एक साथ किन» सर जनम-म-ममफ 3 न कामन अनंत ककननामकननननममा+३काननमम-+मा नया ++नकान++नमनन ९०... गरकममक७० भजन कन७५43७७७+००००००.फाननन-नन न 3० पानननन-नन--+ चर -कमननआन अनननन- ता टला + जननी क्‍व3त-+-+3 १. “सो5य॑ श्रीमज्यन्तचन्द्रो विजयी अधिकारिपुरुषानाशापयति बोधयत्यादिशति च “विदित- मस्तु भवतां यथोपरिलिखितैग्नामः सजलस्थल: सल्लोइलवणाकरः समत्स्याकरः संगर्तोषरः सगिरि- गहननिधानः, समधुकाम्रवनवाटिकाबिट्पतृणयूतिगो चरपर्यन्तः सोर्ध्वाधश्चतुराघायविशुद्धः स्वसीमा- पर्यन्तास्जिच्वत्वारिंशद्धिकद्वादशशतबत्सर आषाढे सासि शुक्ल्पत्षे सम्मम्यां तिथौी रविदिने ( अड्डूतोषपि १२४३ आपषाद शुदि रो ७ अग्येह श्रीमद्वाराणस्यां गड़ायां स्नात्वा विधिवन्मस्त्- बदेव मुनिमनुजमूतपितृगर्णास्‍्तपवित्वा तिमिरपटलपाटनपदुमहसमुष्णरो चिघमुपस्थायोषधिपतिशकल शेखर समम्यर्थ्य त्रिभ्ुवनत्रातुभंगवतों वासुदेवस्थ पूजां विधाय प्रचुरपायसेन हविषा हरि ह हुँचा. मातापित्रोरात्मनश्र पुण्ययशो5मिबृद्यये वस्मामिर्गो करण कुशल्ञतापृतकरतत्वी दर द्वाजगोत्राय भारद्ाजाज्ञिस्सबाइंस्पत्येति त्रिप्रवराय राउत श्रीआठले पौत्राय राउत डोड राउत श्रीअणंगाय. चन्द्रार्की यावच्छासनीकृत्य प्रदत्तो मत्वा तथादीयमानभोः करप्रभ्तिनियतानियतसमस्तदायादाज्ञाविवैयी भू दास्यथ” इत्यादि | . २. “न्यायसूचीनिबन्धो5सावकारि सुधियां मुद्दे । . श्रीवाचस्पतिमिश्रेण* बस्वझुवसुवत्सरे ॥




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