सु-राज | Su-raj
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
117
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रहे--गूंगे पशु की तरह--लुड़-लुड़ । दुबले-पतले मरियल्र से, दिव-रात
भिट्टी में सने रहने वाले काका के आखर सुनकर लोगों की आंखें खुली-
की-खुली रह जातीं !,
काका जब बोलते तो उनके मुंह से चिगारियां-जैसी निकलने लगतीं !
रात को गरीबों के बच्चों को पास बुलाकर काका बारह खड़ी और
वरनमाला के अक्षर काठ की काली पाठियों पर लिखकर सिखलाते । पढ़ने-
लिखने से ही गियान आएगा । और गियान से ही शक्ति !
जिन बच्चों के पास कागज़-पेंसिलें न होतीं, पाठशाला की फीस नहीं
“काका उनके लिए भीख मांग-मांग कर पैसे जुटाते।
जब इलाके के अधिकांश लोग जाड़ों में दो रोटी का जुगाड़ करने,
धूप तापने, माल-भाभर की तरफ उतर जाते तो घरों की रखवाली के
लिए रह गए असहाय वृद्धों, दुर्वंल वच्चीं और लाचार महिलाओं की देख-
रेख काका घर-घर जाकर करते | कई बार तो भयंकर शीत से ठिदुरकर -
मरने वाले किसी अभागे वृद्ध की लाश उठाना भी एक समस्या वन जाती
थी । पर काका के जीते-जी कोई अनाथ कैसे रहता ?
आठ
पूस आधा भी बीता न था ।
इधर तीन-चार दिन से लगातार बर्फ गिर रही थी। रास्ते, पेड़-पौधे,
खेत-खलिहान, छत-आंगन सब वर्फ की सफेद चादर से ढके थे । इस साल
पूस में हियां ज्यादा हुई, इसलिए लोगों का अनुमान था कि ग्ियां (गेहूं )
की फसल अच्छी होगी ।
भीगी मुड़ी हुई रसी की तरह वल खाती, संकरी पगडण्डी पर, वर्फ
में अपने को घंसने से बचाती हुई एक क्षीण छाया-सी ग्रांव की तरफ आ
रही थी ।
सूरज डूब चुका था। पहाड़ों की चोटियों से घना कुहासा फिसलता
24 | सु-राज
User Reviews
No Reviews | Add Yours...