सु-राज | Su-raj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रहे--गूंगे पशु की तरह--लुड़-लुड़ । दुबले-पतले मरियल्र से, दिव-रात भिट्टी में सने रहने वाले काका के आखर सुनकर लोगों की आंखें खुली- की-खुली रह जातीं !, काका जब बोलते तो उनके मुंह से चिगारियां-जैसी निकलने लगतीं ! रात को गरीबों के बच्चों को पास बुलाकर काका बारह खड़ी और वरनमाला के अक्षर काठ की काली पाठियों पर लिखकर सिखलाते । पढ़ने- लिखने से ही गियान आएगा । और गियान से ही शक्ति ! जिन बच्चों के पास कागज़-पेंसिलें न होतीं, पाठशाला की फीस नहीं “काका उनके लिए भीख मांग-मांग कर पैसे जुटाते। जब इलाके के अधिकांश लोग जाड़ों में दो रोटी का जुगाड़ करने, धूप तापने, माल-भाभर की तरफ उतर जाते तो घरों की रखवाली के लिए रह गए असहाय वृद्धों, दुर्वंल वच्चीं और लाचार महिलाओं की देख- रेख काका घर-घर जाकर करते | कई बार तो भयंकर शीत से ठिदुरकर - मरने वाले किसी अभागे वृद्ध की लाश उठाना भी एक समस्या वन जाती थी । पर काका के जीते-जी कोई अनाथ कैसे रहता ? आठ पूस आधा भी बीता न था । इधर तीन-चार दिन से लगातार बर्फ गिर रही थी। रास्ते, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, छत-आंगन सब वर्फ की सफेद चादर से ढके थे । इस साल पूस में हियां ज्यादा हुई, इसलिए लोगों का अनुमान था कि ग्ियां (गेहूं ) की फसल अच्छी होगी । भीगी मुड़ी हुई रसी की तरह वल खाती, संकरी पगडण्डी पर, वर्फ में अपने को घंसने से बचाती हुई एक क्षीण छाया-सी ग्रांव की तरफ आ रही थी । सूरज डूब चुका था। पहाड़ों की चोटियों से घना कुहासा फिसलता 24 | सु-राज




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