गृह्यसूत्र - संग्रह | Grihysutra Sangrah

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Grihysutra Sangrah by श्रीराम शर्मा आचार्य - Shri Ram Sharma Acharya

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जन्म:-

20 सितंबर 1911, आँवल खेड़ा , आगरा, संयुक्त प्रांत, ब्रिटिश भारत (वर्तमान उत्तर प्रदेश, भारत)

मृत्यु :-

2 जून 1990 (आयु 78 वर्ष) , हरिद्वार, भारत

अन्य नाम :-

श्री राम मत, गुरुदेव, वेदमूर्ति, आचार्य, युग ऋषि, तपोनिष्ठ, गुरुजी

आचार्य श्रीराम शर्मा जी को अखिल विश्व गायत्री परिवार (AWGP) के संस्थापक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है |

गृहनगर :- आंवल खेड़ा , आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत

पत्नी :- भगवती देवी शर्मा

श्रीराम शर्मा (20 सितंबर 1911– 2 जून 1990) एक समाज सुधारक, एक दार्शनिक, और "ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार" के संस्थापक थे, जिसका मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार, भारत में है। उन्हें गायत्री प

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमोः5ध्यायः 1] [ २५ होता है । जाघव के लिए यहां पर गींदान का ग्रहण होता है बस्तुतः समावत्त न का ही ग्रहण करना चाहिए 1१। कुछ आचार्थों का मत है कि सभी समय में विवाह हो सकते हैं । उद्गमन में ही विवाह होने चाहियें- ऐसा कोई नियम ही नहीं है । उत्तका क्या अभिप्राय है ?--शप्तका उत्तर यही है नियम में निबद्ध होने पर दोपोी का श्रवण होता है अतः घिवाह में कोई भी काल का नियम नही है व्योंकि लिखा है--“ऋतुमत्या हिं तिए्ठन्त्यां दोष: पितरमृच्छति” अर्थात्‌ जब फन्‍्या ऋतुमती हंकर पिता के ही घर में स्थित रहती है तो इसका दोप पिता को प्राप्त होता है | इसका तात्पर्य यही है कि ऋतुफाल आने के पूर्व ही पिता को कन्या का दान ( विवाह ) कर देना चाहिए । यह तो द्यास्पीय दोष हे । इसके अतिरिक्त अन्य लौकिक दोप भी समुत्पक्त हो जाया करते है ।२। उन दोपों के पूर्व ही चार भाज्य की भाहुतियों से हृवन करना चाहिए । ३। सूत्र में चारों की ही व्याहृति रंज्ा की गयी है। “अग्त आपूपि पवस/ इति--इसरी तीन से प्रजापति की है 'नतु ये अन्य है! इति--इससे ब्या- हृतियों से और स्वाहा इत्यादि से हवत्त करना खाहिए ।४। फतिपत भाषाय गण ऋषणाओं की भाहुतियों भौर व्याहृतियों की आहुतियों का समुच्चय चाहते है। इससे आठ आहुतियाँ होती हैं ।५। एक आचार्ट फिसी भी आहुति फो नहीं चाहते हैं । 'नके--एतना ही कहने पर जो इस सुत्र में 'कांचन” इसका गअहण फिया है बढ़ एभीलिए है कि यह प्रशि- पेघ ऋग।हुतियो का और शध्याहृत्याहुतियों का है अरभ्वात्र्‌ अन्य आहुतियों दे हवन फरना वाद्विए--छसीलिए ग्रहण किया गया है | कि शब्द सर्व नाम है और सर्वनाम गसर्वदा प्रकृत का परामर्णषी होता हैं। इससे अना- देशार्तियाँ सिद्ध होती हैं ।६। 'त्थमयेसा भवति यत्कानीनाम दति-- इससे घिवाह में चतुर्थी होती है। यहां पर यह संशय होता है. कि पूर्वा के बाध होने पर ही उत्कर्प होता है। यहां पर जह बालते है कि उत्कर्ष ही होता है क्योंकि यह असमास जाति हैं। जो समान जाति होता हैं वहीं पर वाब होता हैं । इससे संघय का भचसर द्वी नही है और उत्कर्ष सिद्ध होगा है ।७।(४)




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