संस्कृत - व्याकरण | Sanskrit Vyakaran

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Sanskrit Vyakaran by डॉ. कपिलदेव द्विवेदी आचार्य - Dr. Kapildev Dwivedi Acharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब्याफरण-स्ास्त्र का इतिदास २७ अधष्टाध्यात्री म आठ अध्याय एैं और शत्येक अव्याय म॒ चार पाद है ; प्रत्येज पाद के सूजा वी सख्या से पर्याप्त मेद है। इसको अशध्यायी, अ्॒टक और पाणिनीय भी कहते है, किन्तु प्रचलित नाम अष्टाध्यायी ही है| १४ प्रयाह्मरसतों को छेकर इसकी सूत्र सख्या ३९९० मानी जाती हे ओर समी लेफर्जा ने इतनी ही राख्या ल्सी $ | वास्तविक गणना से शाठ होता है जि १४ प्रत्याह्रयओं ( अइठण्‌ आदि ) को लेजर कुछ सूतसख्या ३९९७ है, न7३९९५। अध्यायों के प्रम से सूज सयया इस प्रसार है --(१) ३०१, (२) २६८, (३) ६३१, (४) ६३०, (५) ५५८, (६) ७३६, (७) ४३८, (८) ३६९ ००३९८३ + *४ प्रत्याहार सुत़र+३९९७ सूजन सख्या | सूजसख्या की दृष्टि से अशध्यायी के अध्यायों का क्रम होगा --१. (६) ७३६, २. (४) ६२०, ३ (३) ६३१, ४. (५) ५५०, ५, (७) ४३८, ६. (८) २६९, ७. (१) ३०१, <. (२) २६८ । (क ) सयसे अधिक एक पाद मे॑ सूत-+ अध्याय ६ पाद श्म २२३ सूत है, (सं) सरसे कम एक पाद म यूज़--अध्याय ९ पाद २म ३८ सूत| भ्रत्येक अध्याय से सक्षेप में निम्नलिखित विषय दिए गए है--(१) परिभापाएँ, परस्मैपद और आत्मनेपद प्रक्रियाएँ, कारक--चठ॒थी, पचमी । (९) समास, कारक--तृतीया, पचभी, पष्ठी, सतमी । (३) कृत्य और इत्‌ प्रत्यय । (४) और (८५) तद्धित प्रत्यय, (६) तिरन्‍्त, सग्धि, स्घर, अगाधिकार आरम्म [ (७) अगाषि कार ( मुयनन्‍्त, तिडन्त ) | (८) द्विरक्त, स्वर प्रक्रिया, सधि प्रकरण, पत्व, णत्व | अष्राध्यायी की विशेषताएँ (9) म्त्याहार---अध्यध्यायी श्रत्याहार या मादेश्वर सता को आधार मानरर चढटी है। पाणिनि ने ध्रथम और अन्तिम अक्षरा को लेकर अनेक अत्याद्दार बनाए हैं। ये प्रत्याहार मध्यगत सभी प्रत्ययो आदि के आहक होते है | जैसे--सुप्‌ ( प्र० १ से स० ३ तक सभी प्रत्यय ), तिड्‌ (सभी पर० और आ० तिटद अत्यय )। (२) अधिकारसूच--अप्ध्यायी स॒ प्रीच बीच सम अधिकार सूत्र दिए गए हैं। निर्दि० स्थान तक प्धिकारसूतओं का अधिकार चत्ता हे! उतने बीच म सर्वत्र उन सजों वी अशुग्रत्ति होगी | जैसे--छत्या ( ३-१-९५ ) का अधिकार प्छुट्तुची ( ३२-१-१३३ ) तर दे । धातों (३-१-९१ ) का अध्कार तीसरे अध्याय के अवतक दे। तद्धिता ( ४-१-७७ ) का आविकार पाँचये अध्याय वी समात्ति तक है। (३) सणपाद--सलेप के लिए पाणिनि ने मणपार्णें का उप्योण किया है। यदि, गण ही. फार्य अनेक शब्दा से होता दे तो समी शब्दो को न देकर आदि झब्द लगाकर गण थना दिया दे । उसका अर्थ होता हे कि इस इब्द से तथा इस ग्रझार के अन्य आर्ब्दा से यह प्रद्यय या यह कार्य होता है। जैसे--दण्डादिस्यो यत्‌ ( ५-१-६६ ) दण्ड आदिसे यत्‌ (य) ग्रद्यय होता है। दण्ड आदि गण में श्षशदद हैं। अशधष्यायी म॒ २०८ गणपाठ वाले यूत है। (४) छीकेझ और बेदिऊ व्याकरण-- पाणिनि-ब्यार्रण सुख्यतया टौकिक सस्क्त के लिए है, परन्त साथ ही साथ बैदिक




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