कस्य पहुदम | Kasaya-pahudam Vol-12

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Kasaya-pahudam Vol-12 by फूलचंद्र सिध्दान्तशास्त्री - Fulchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २७ ) करणके लिए मूल पर दृष्टिपात करता चाहिए। यहाँ सूत्रगाथा 5८ और १०९ में कहाँ किस प्रकार कौत- कौत उपयोग सम्भव हैं इस विपयका निर्देश किया है सो इसे समझनेंके लिए अद्धापरिमाणका निर्देश करने वाली ( १५ से २० तक ) सूत्रगाधाओं पर दृष्टिपात करके प्रकृत विषयकों समझ लेना चाहिए । विशेष खुलासा उक्त सूज्रगाभाओके व्यास्यानके समय कर ही आाये है । यहाँ इस अर्थाधिकारकी १५ सूत्र गाथाओमे से कपायप्राभृतकी १०४, १०७, १०८ और १०९ क्रमाकवाल्ी गाथाएँ कर्मप्रकृति ( श्वें ) मे ३३, २४, २५ और २६ क्रमाकसे पाई जाती है। उनमेंसे १०४ क्रमाकवाली गायाका पूर्वार्थ ही मिल्ता-जुलता है। उसमें भी द्वितीय चरणमें अन्तर है । जहाँ कषाय- प्राभृतमें 'वियद्ठेण” पाठ है वहाँ कर्मप्रकृतिमे 'विगिद्ठो य' पाठ है। इससे दोनोके थर्थमें भी अन्तर हो गया है। कपायश्राभुतके उक्त पाठसे जहाँ यह ज्ञात होता है कि सम्यस्ृष्टि जीव यदि मिथ्यात्वमे जाकर पुन प्रथमोपशम सम्यवत्वकों प्राप्त करता है तो वह बहुत दीर्घ कालके बाद ही प्रथमोपशम सम्यवत्वको प्राप्त करनेका अधिकारी होता है । वहाँ कर्मप्रकृतिके उक्त पाठका उसके चूणिकार और दूसरे टीकाकारोने जो अर्थ किया है उससे मात्र यह ज्ञात होता है कि यह प्रथमोशम सम्यवत्व बडे अन्तर्मुहर्त काल तक रहता है । यहाँ यह अन्तर्मुहर्त किसकी अपेक्षा बडा लिया गया है इसका छुछासा मलूबगिरिने इन शब्दोमे किया है-- 'प्रथमस्थित्यपेक्षया विप्रकषेश्च' अर्थात्‌ प्रथभ स्थितिकी अपेक्षा प्रथमोपश्म सम्यक्व॒का यह काछ बडा है। इस प्रकार उक्त गाथाके पूर्वार्धमें पाठ भेद होनेसे उसका उत्तरार्घ भी वदल गया है। कर्मप्रकृतिकी २४ क्रमाककी सम्महिंद्दी तियमा” और २५ क्रमाककी “मिच्छहिट्ी नियमा' गाथाएँ रचना और अर्थ दोनो दृष्टियोसे कषायप्राभृतकी १०७ और १०८ क्रमाककी गाथाओका पूरा अनुसरण करती है । मात्र कर्मप्रकृतिकी २६ क्रमाककी गाथा कषाययाभृतकी १०९ क्रमाककी गाथाका कृगभंग झव्दश. अनु- सरण करती हुई भी आर्थकी अपेक्षा कुछ अन्तर है । जयबब॒ला टीकाकारने इस गाथाके तीसरे चरणमे आये हुए 'वजञ्ञणोग्गहस्सि! 'पदका 'विचार- पूर्वकार्थम्रहृणा वस्थायाम्र' --/विचार पूर्वक अर्थ प्रहणकी अवस्थामें” अर्थ किया हैं। जब कि कर्मप्रक्ृतिके चूथिकारने इस पंदका अर्थ व्यक्ञनावग्रह' किया है। चूणिका समग्र पाठ इस प्रकार है-- 'अह वजणोग्गहम्मि उ' त्ति--जति सागारे होति वजणोग्गहो होइ ण अत्योग्गहो होइ जम्हा ससयनाणी अब्वत्तनाणी वुच्चति। चूणिकारके इस कथनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ईहा, अवाय और धारणा ज्ञातकी वात तो छोडिये भर्थावग्रह भी स्वीकार नहीं करते रहे । यहाँ अव्यक्त स्वरूप संशयज्ञानके अर्थमें व्यजनावग्रह शब्दका प्रयोग हुआ है ऐसा उसके उक्त चूणिमें किये गये विशेष व्याख्यानसे प्रतोत होता है । इस बातकों मलयगिरिने अपनी टीकार्मे इन शब्दोंमे स्वीकार किया है--सशयज्ञानिप्रस्यता च व्यज्जना- धग्नह एवेति | कषायप्रामृत दिगम्बर आचायोंकी ही कृति है (१) है इवेताम्बर मुनि श्रीगुणरत्न विजयजीने कर्म साहित्य तथा अन्य कतिपय विषयोके अनेक ग्रथोकी रचना ा है। का एक खबगसेढी ग्रंथ है। इसकी रचनामें अन्य अन्थोके समान कषायग्राभृत और उसकी चूणिका पूर उपयोग हुआ है। वस्तुत द्वेताम्बर पसुपरामें ऐसा कोई एक ग्रन्थ नही है जिसमें रे हल न उपलब्ध होता हो। श्री मुनि गुणरत्तविजयजीने अपने के कल इन शब्दोमें स्वीकार किया हैं--समाप्त थया बाद क्षपकरश्नेणीने विषय सस्क्ृतमा गद्यरूपे लखवो शरूकर्यों, ४थी ५ हजार इलोक प्रमाण लखाण थयावाद भने विचार आव्यो के जुदा ग्रन्योमा छूटी छपाई वर्णवायेली आओ श्रेणी व्यवस्थित कोई एक ग्रन्थमा जोबामा आवती नथी जैनशासदमा महत्वनी गणती '्षपक श्रेणी” ना जुदा जुदा प्रन्थोमा सगुहीत विषयनो प्राकृतभाषामा स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार थाय, तो ते सोक्षामिल्लापी ६ स्माओीदें घणों छामदायी वने” उनके इस वक्‍्तव्यसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस अधके प्रणयनमें जहाँ उन्हे पा




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