अपने - अपने चार बरस | Apane Apane Char Baras

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Apane Apane Char Baras by अमृता प्रीतम - Amrita Pritam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अजीत कौर याद नही आता किसकी पंक्ति है, कहाँ पडी थी, पर वह मेरे स्मृति-पठल चर अंकित है: “वा 15 ध्राधगाए 8 504, & 0060 ४णीटागाह ग्रा्ठाधगध८५४ और आज यह्‌ पंक्ति अजीत कौर कै सपने पढकर मुझे वार-वार याद आ रही है। अजीत कौर पंजाबी की एक बहुत अच्छी कहानीकार है, झसके सपने ये है : “सलार्से* 'वेइन्तहा सलाखें | पिजरे बहुत बडे । पिजरों की सलाज़ें जैसे इंघर से धरती में और ऊपर से आसमान में गडी हुई हो। पीली-भूरी मिट्टी में चंसी हुई, और नरम नीले गुंधे हुए मैंदे सरीखे आसमान में गड़ी हुई । और सलाजों के पीछे चोखती हुई मैं 'तही, में पागल नही । मैं बिलकुल ठीक हू । मैं तो बिल- कुल ठीक हूं । पर लगता है जैसे बहुत-से लोग--लोगों की भीड़ की भी ड़, जी सलाखों के उस ओर खड़ी है, चल रही है, हंस रही है, वार्ते कर रही है, बेनियाज् मेरे दर्द से, उस भीड़ में से कोई भी मेरी वात पर एतवार नही करता | और मेरी जान जैसे अकुला रही है । अजीब बेवसी 1 वेबस तिलमिलाहट॥ अकुलाहट 1 उमस* भरी बौखलाहट। मेरी जान जैसे फैसला करके चोख रही है कि अगर इन प्लासों में से मैं नहीं निकल सकती तो बेशक मौत आ जाए। अगर ये सलार्खे जरूर रहनी हैं, तो फिर पसलियीं की सलारसें मंजूर नहीं। मंजूर नही। अजीब बेवसी मे, और गुस्से में, और वौखलाहट में, मोर रोप में मैं सलाज़ों से पसिर पटक रही हूं, सलाखों को मुक्‍्के मार रही हूं । अजीत कौर / २३




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