उपनिषदों की भूमिका | Upnishadon Ki Bhumika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
168
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उपनिषदों की भूमिका २७
को विधियों का वर्शान है ; सामवेद जिसमे गीतों की चर्चा है; भोर धपर्यवेद
जिसमे बहुत सारे जादू-टोने है । प्रत्येक के चार विभाग हैं : (१) संहिता, प्रात
मंत्रों, प्रार्यनाग्रो, स्वस्तिवाचन, यज्ञविधियों धौर प्रार्यना-गीतों फा शग्रह ;
(२) ब्राह्मण, प्र्थात् गदनेस, जिनमें यज्ञों भोर पनुष्ठानों के महत्व पर विफार
किया गया है , (३) भारण्यक, प्र्थात् वनो में रचित ग्रथ, जिनका जुछ भाग
ब्राह्मणों के भ्रतगंत भौर कुछ स्वतत्र माना जाता है ; श्रौर (४) उपनिपद् ।
बेद से प्रभिप्राय उस समूचे साहित्य से है जो मत्र भौर ब्राह्मण इग दो
भागी से मिलकर बना है।* मत्र की व्युत्पत्ति थारक ने'मनन', सिघार करने, से
बयाई है ।* मत्र वह है जिसके द्वारा ईश्वर का घ्यान किया जाता है । ब्राह्मण
में उपासना का कर्मकाड के रूप में विस्तार है । ब्राह्मणों के गुछ ध्रभ घारण्यक
कहूलाते है । जो ब्रह्मचारी रहकर ग्रथना भ्रध्ययत जारी रखो थे, ये प्ररण सा
अरणमान बहमसाते थे। थे ग्राथमो या वनो में रहते थे । ये यन जहां प्ररण
रहने थे, श्ररण्य कहलाते थे । उनके विवेचन आररण्यकों के प्रदर हैं ।
यास््क ने यानिको, नैझकों प्रौर ऐनिहासिको द्वारा की गई थेदों दी
विभिन्न व्याख्याग्रों का उल्लेख किया है। 'बृहृद् देवता! में भी, जो बारह के
'निरुक! के बाद का है, वेदों की व्यास्थाप्रों के सम्बन्ध में विभिर्तन मंता का
उत्लेस है। वह ग्रात्मवादियों कार उल्लेस करता है, जो वेदों का सम्बन्ध मंगो-
वैज्ञानिक प्रक्रियाप्रों से जोट़ते हैं !
ऋग्वेद, जिसमें दस मंडलों में विभक्त १,०१७ मुक्त हैं, धामिक भैतता के
विकास को सवसे प्रारम्मिक अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है ॥ उसमें पुरी*
हितों के ग्रादेश उतने नहीं हैं. जितने कि विश्व के विराद मप मौर जीवन के
भ्रपार रहस्य से चमत्कृत कवि-मनों के उद्गार हैं। देने उल्तायपूर्रां सूक्तों से,
जो प्रकृति के प्दुभुत रूपी को देवत्व प्रदात करते हैं, जीवन के कीतुर के प्रति
सीघे-सादे किंतु निरछत मनों की प्रतिक्रियाएँ वितरित हैं। इसमें देवों २--सूर्य,
सोम (चंद्रमा), प्ग्नि, थो (मरावाश), पृष्वो , मदत् (ऋतवात), वाट, भपू,
(जल) , उपा जेंसे देवताप्रों--की उपायता है। इन्द्र, वस्ण, मित्र, प्रदिति, विष्णु,
१, “मंदवाद्यययोविदनामपेयम्?--विश्परिनाश! में आपरवस्थ 1
२, निरुक्त, ०. रे, ६1
३, अमगरकोशा के खतुसार, देवे अमर (भमरा) धजर (निर्याफे सदा दी डिमान
दबाओे खर्गे में रइनेवाजे (विदशाके जानी (विवाएे और देवदा (हरा हैं।
४, यूनानी देवमाला में; विवस साश्चरावीद्य के #ूप में पुली झाच से ध्वरयद
स्व से जुत डुचप है । देखे, ए० बी० कुद-- विस (९१०), १, दर फरद।
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