बिना दीवारों के घर | Bina Deevaro Ke Ghar

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Bina Deevaro Ke Ghar by भन्नू भडारी -Bhannoo Bhandari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बिना दोवारों के घर : है मीना : बेठिए । ज़ोजी : 1 देठते हुए) इस समय तो वस से श्राने में प्राण ही निकल जाते हैं बस आमा : श्राप दस में घुस कंसे लेती हैं इस समय, मुके तो इसी में आइचयं होता है । भाप शाम को क्यो नहीं जाती सत्संग में । जीजी : सत्संग में सवेरे न जाने से मुझे लगता है जैसे सारा दिन दिगड़ मुया । (सोना की शोर) सझाप कलकत्ता तो नही रहती द्ायद * 'मौना : जी, श्रभी भ्राई हूँ । (उठते हुए) ग्रच्छा, झभी तो चलूँगी । (शोभा हो) तो मैं दस-साढे दस बजे के बीच 'भ्रजित्त थो फोन अचरूगी ! यो थोड़ी 'मूिता तुम ढाँघ- कर रखना 1 जयंत : तुम्हें जाना किधर है, मीना ? भोना : यहाँ से तो चौरंगी ही जाऊंगी 1 सपंत : चलो, हो मैं ठुम्हें छोड़ देता हूँ (शोभा से) भौर हाँ देखो, मट्दता साइबर एक नोकर भजगे । बात करके देखना । भ्रच्छा जीजी, इन्हें जरा छोड़ घाऊँ । (नमस्ते करके दोनों चलने सगते हैं । जोजी भीतर चली जाती हैं ३) जयंत : तुम्दा री क्लास दितने बजे है ? होभा : वार से । जयंत : हो सका तो मीना वो छोड़कर एक चंकर लगा लूँ । साढ़े ग्यारह पर मुकने इघर ही किसी से मिलने जाना है । इतेसा : फिर कद था रहो हो, सीना ? भाज के दाने बे हैं पाना नहीं मानूंगी, समझी ?




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