वेदान्तरत्नाकर | Vedant Ratnakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९ यह रत यक्तरसकों दान कर जाता तो छवश्य यशद्त्त का उसमें राग हो जाता, क्योंकि तब उसझा यदद निश्चय दोता कि रत्न श्य उसके पास से नद्दीं जायया 1! इसी प्रकार यदि इस संसारके विपय तुम्दरे पास रहने याले होते तो उन में राग करना किसी प्रकार उचित भी दो सकता था। परन्तु लव ये अवश्य नष्ट दो दी जायेंगे तो उन में फदापि राग नहीं रखना 'चाहिये । 1 जिस प्रकार कोई पुरुष नीम के पत्ते चवाकर फिर शुड़ 'मथवा कोई दूसरी मीठी चीजू खाय तो उसे पहले उन शुड़ छादि का माधुर्य प्रतीत नहीं होता 1“ इसी प्रकार राग यद्यपि दुम्खदायी दोता है तथापि प्राथमिक सुस॒ संस्कारों के कारण चहद दुःख पूर्ण तया भान नहीं द्ोता । जिस प्रकार फ़तां के संस्कार माधुर्यकी' प्रतीति में प्रतिचन्धक थे उसी प्रकार यदां सममना चाहिये। इंसः लिये ऐसे सर्वदा दुःखकारी रागसे दूर रद्दना प्रत्येक कल्याण-कामी पुरुपका धर्म दै । यही वात रप्निम श्ठोक में कद्दी जाती है. :-- रागो रागल्वयुक्तः सुखयति हृदय कालमत्रान्पमेव, क्लिर्नात्यज्ं हु तन्नाप्यथ न सुखबशान्मन्यते क्लेश एप । द्व पत्व प्रांप्य सोध्यं सपदि पुनरदों कृन्ततिस्वान्तसएडं, हा दा चएडं तथापि त्यजति न तमदों पापमेतन्मनो में ॥£. राग रागरूपसे थोड़े ही समय हृदय को सुखी ' करता दै.।' परन्तु उस कालमें भी शरीर को तो दुःख पहुँचाता ही है; तथापि सुखके संस्कारोंके कारण चहद क्लेश प्रतीत नहीं दोता दे ।' फिर




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