साहित्य स्थायी मूल्य और मूल्यांकन | Sahity Sthai Mulya Aur Mulyankan

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Sahity Sthai Mulya Aur Mulyankan by रामविलास शर्मा - Ramvilas Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मा्र्सवाद और प्राचीन साहित्य का मूल्यांकन २५ सवर्ण हिन्दुओं में भी ब्राह्मणों से विज्वेष प्रेम दिखाई देता है। यशपाल जी ने मावसंवाद पर पुस्तक लिखी है और तुलसीदास की विचारधारा का विदलेषण भी किया है । कबीर से तुलसी की भिन्‍नता विखलाते हुए उन्होंने लिखा है, “तुलसी का भव्ति-मार्ग केवल सवर्ण हिन्दू जनता की सांस्कृतिक एकता का प्रतिपादन करता है।' 'रामचरितमानस' का मूल तत्त्व क्या है ? यशपाल जी का कहना है, वर्ण- व्यवस्था के समर्थेत्र, ब्राह्मण की श्रेष्ठता और स्वामी-वर्ग के अधिकारों के समर्थन को जो स्थान 'रामचरितमानस' में दिया गया है, वही उसका मुख्य अंग है। इस तरह की गम्भीर व्याख्या यक्षपालजी से पहले डॉ० रांगेय राघव कर चुके थे ! “तत्कालीन उच्च वर्ग ने प्रारम्भ में जो तुलसी का विरोध किया, वह ग़लती उन्होंने जल्दी महसूस की । राम-नाम के प्रताप से जूडन बीनकर खानेवाला तुलसीदास अपने जीवन-काल में ही उन्हीं उच्च थर्गों के कन्धों पर बोलने लगा, हाथी पर चढ़ने लगा भन् कठिनाई यह है कि उस समय तो तुलसी उष्घ वर्गों के कन्धों पर डोलने लगा, भगैकिन आज वह भारतीम जनता--विशेषकर हिन्दी-भाषी अनता--फ्रे हुवय पर आसन जमाये हुए है। उसे हटाये बिना हमारे मित्र जो नथा साहित्य रच रहे हैं, उसकी प्रतिष्ठा कैसे हो ? खोट दरअसल जनता में है, इसी लिए तुलसी को जनता के हुदय-सिहासन से हटाने के लिए हमारे मित्र भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। इस जनता का पहला कसूर यह है: “देश की सर्व-स्ाधारण जनता ने 'राम- शरितमानस' को काव्य की अपेक्षा शास्त्र के रूप में अधिक मान्यता दी है ।” और आलोचक क्या करते हैं? वे भी 'रामचरित मानत्त' को धास्त्र समझकर उससे अनैक दोहे-नौपाइयाँ उद्धत करके उसे ब्राह्मण-धर्म का समर्थक-शास्त्र सिद्ध करते हैं। उनके मन में अनेक प्रधन उठते है; उठते ही नहीं हैं, “हमारे मन और मस्तिष्क में उपस्थित प्रघतत सिर उठाए बिना नहीं रह सकते ।” भ्रतः 'रासचरित- मानस को शास्त्र मानकर उन्हें उसका विवेधन करता ही पड़ता है, यधपि इसकी जिम्मेदारी आलोचकों पर महीं जनता पर है। जनता भी क्या करे ? इतिहास ने उसे भशिक्षित और अन्ध-विश्वासी बना दिया है। ऐतिहासिक प्रक्रिया के बारे में ग्रधापाल जी कहते हैं, “रामचरितमानस एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के कारण विक्षा की. प्रगति से बिहीत सर्वसाधारण की एकमात्र कला-निश्चि और भैतिक शास्त्र बत गया ।” यह कलामिधि सवर्ण हिन्दुओं के पल्ले ही पड़ी। 'सर्वसाधारण' १, नया पथ', १८५७ के स्थातल्य-संप्राम की पुण्य स्पृति में, जुलाई- ध्रगरल, १६५७।॥। २. 'प्राण़ोचता, ४५ ।




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