श्रीमद्वाल्मीकी रामायण भाग - 1 | Shrimadvalmiki Ramayan Bhag - 1

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Shrimadvalmiki Ramayan Bhag - 1  by चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा - Chaturvedi Dwaraka Prasad Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनुवादक की सूचना छोटी-छोटी पुस्तकों में भी जब भूमिका देना, प्रचलित प्रथा के अनुसार, अनिवार्य समझा जाता है तब इतने बढ़े ग्रन्थ के आरम्भ में भी भूमिका का होना परमावश्यक हैं । किन्तु भूमिका या तो स्वयं ग्रन्थकार को लिखी होनी चाहिए अथवा भ्रन्थकार से घमिप्ठ परिचय रखने वाले उछ्तके किसी आत्मीय, सम्बन्धी अथवा मत्र की लिखी हुई। ये दोनों प्रथाएँ आज ही प्रचलित हुई हैं, यह कहना उचित न होगा। इस देश में ये दोनों ही प्रथाएँ प्राचीन काल से प्रचलित जान पड़ती हैं। इस इतिहास- प्रन्थ-रत्न श्रीसद्राल्मीकीय रामायण में भी सूमिका है और यह भूमिका स्वयं आदिकवि की लिखी हुई नहीं, श्रत्युत उनके किसी शिष्य प्रशिष्य को लिखी हुई है। बालकाण्ड के प्रथम सगे को छोड़, दूसरे से लेकर चौथे-सर्ग तक--तीन सर्गे--आदिकाज्य के भूमिकात्मक हैं। इसको रामायण के टीकाकारों में श्रेष्ठ, 'झाचायेप्रवर गोविन्दराज जी ने भी स्वीकार किया है। यथा-- “सुर्गात्रयमिद॑. केनचिद्वाल्मीकिशिष्येश . रामायण- निवृत्यनन्तर निर्माय वैभवप्रकटनाय संगमितं । ' यथा याज्ञवल्क्यस्म॒त्यादों तथेष तत्र विज्ञानेश्वरेण व्याकृत |” उक्त तीन सर्गों में यत्र-दत्र इस अनुमान की पुष्टि करने वाले प्रमाण भी उपलब्ध द्वोते हैं यथा चतुर्थ सब का प्रथम श्लोक है-- “प्राप्राज्यस्य रामस्य वाल्मीकिमेंगवान्‌ ऋषिः । चकार चरितं कृत्स्न॑ विचित्रपदमात्मवान्‌ ॥




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