पाप की ओर | Paap Ki Aor

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Paap Ki Aor by प्रताप नारायण श्रीवास्तव - Pratap Narayan Shrivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११ ) सभ्यता को श्रहण करके फिर भी स्वदेशी सभ्यता को स्वतंत्र रूप से रख दाकना ही उनके यश का कारण है । टानीज़ांकी ने पश्चिमीय साहित्य का अध्ययन भी ज़ूब किया है 1 उन्होंने पो जाजे सोर बाडलेयर गातियर और बालज़ाक-जैसे छॉँगरेज़ी शरीर फ्रच-सोखकों को खूब मनन किया है । उनके विचारों से अपने चिचारों को सिलाकर तथा अपने दृष्टिकोण को उनके दृष्टि- कोण से युक्त करके उन्होंने अपनी पुस्तकें लिखी हैं इसीलिये ने इतनी स्वाभाविक श्र उच्च हैं । पश्चिसीय प्रभाव उनके लेखों में बहुत कम मिलेगा और जहाँ मिलेगा चहाँ पर नवीनता का एक भाव और रंग लिए । ठानीज़ांकी ने जिस समय लिखना शुरू किया उस समय नवयुग का थारंध हुआ था | देश के सब चयोबद्ध पुसानी सकीर के फ़क़ीर हो रहे थे और नवयुचक-दल नई रोशनी को अपना रहा था। इसी समय रानीज़ाकी ने लिखनां आरंभ किया। परिणाम थह हुआ कि वे नवयुवकों के तो पूज्य-देव हो गए और पुराने श्रादमियों के भी चचु- शुल नहीं हुए । हाँ उन्हें उनसे उतनी ख्याति नहीं मिली जितनी कि मिलना उचित था । टानीज्ञाकी को सदि नवयुण का प्रबतक कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी । जापानी-साहित्य में नव जीवन डालनेवाले वहीं प्रथम पुरुष थे और बाद में हानिवासे नवीन लेखकों को उन्होंने प्रोत्साइन भी ख़ुब दिया है । प्रतापनारायण श्रीत्रार्तन




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