दो आँखें | Do Aankhen

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Do Aankhen  by ताराशंकर वंद्योपाध्याय - Tarashankar Vandhyopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२७ कर झटके से बंदूक छीन ली। जावता नहीं था न। उसी खींचने में कैसे तो घंदूक छूट गई और गोली नारायण के वगल से होकर निकल गई। नारायण हक्‍का-वक्‍्का होकर जाने कैसे गिर पड़ा और बंदूक बगल में गिर गई। समभ गए, बावुओं का वह छोरा तो नौ दो ग्यारह हो गया। उसने समझा कि तारायण खत्म हो गया। नारायण को काठ तो मार गया था बाबू, पर छोकरे का उस तरह से भागना देखकर वह दशा जाती रही। हा-हा हंसते- हंसते बहु लोट-पोट । छोकरी पेड़ से उतरी। नारायण ने कहा, ले, कपड़ा पहं। ले । घर चल । राम भल्‍्ला ने बाबुओं से रुपया ऐंठकर बंदूक दे दी। नारायण को लेकिन दुःख लिख। था | हृदय घर आया। बाबुओं के यहां जाकर उसने सब सुना और तासयण को खब पीटा । कमरे में बंद कर दिया। खाना नहीं दिया । नारायण को लेकिन उसकी परवाह नहीं । छोकरा बाबू के भागने की जब-जब याद ग्राई, वह हंस दिया । लोगों में यह वात फैली कि तारायण का चरित्र ठीक नहीं । राम- भलल्‍ला ने कहा, छोटे ठाकुर, नष्ट रात के चांद को देखने से मना किया था मैंने। फूल मिल गया न । नारायण ने एक बुरी बात कह दी थी। सीखी थी उसने 1 उन लोगों की फोली में जो कुछ था, वही पाया था उसने--इसीलिए सीखी थी । बीड़ी पीता था। तम्बाखू पीत्ता था। भल्‍्ले शराब चुलाते थे। पीते भी बेहद थे , नारायण ने शराब चुलाना भी सीखा था, पर पीता नहीं था 1 कैसी तो वू लगती थी । जी मिचला उठता | इसके सिवा, छुटपन में मां के मर जाने के बाद साल-भर पिता जिंदा थे, उस साल-भर वह उन्तके साथ- साथ घूमता रहा | पिता एक संपन्‍त कायस्थ परिवार में शालिग्राम की 'पृजा करते थे। पिता अच्छे-खासे थे देखने में, धर्मभीरु थे । नारायण को उन्होंने जो सिखाया था, या नारायण ने उनसे जो सीखा था, वह ठीक स्मरण न रहते हुए भी शायद शसव पीने की मताही की थी भौर शरवियों से पं




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