जैन साहित्य संशोधक | Jain Sahitya Sanshodhok

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Jain Sahitya Sanshodhok by जिन विजय मुनि - Jin Vijay Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अर्क १ |] योगद्शेन [ १७ चलन तक ससस्‍्वगुणका परमप्रकर्ष मान कर तद्ढवारा जगतूउद्घारादिकी सब व्यवस्था घटा! दी हे | ३ योगशास्त्र दृश्य जगत्‌को न तो जैन, वेशेषिक, नैयायिक द्शनोंकी तरह परमाणुका परिणाम मानता है, न शांकरवेदान्त दर्शनकी तरह ज्रह्मका विवर्त या ब्रह्मका परिणाम ही मानता है, और न बौद्धदशनकी तरह झून्य या विशान्यस्मक ही मानता है: किन्तु सांख्य दशनकी तरह बह उसश्तकों प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि -अनन्त-प्रवाहस्वरूप मानता है | ४ योगशाल्ममें वासना क्लेश ओर कर्मका नाम ही संसार हे, तथा वाक्षनादिका अभाव अर्थात्‌ चेतनके स्वरूपावस्थानका नाम मोक्ष2 है | उसमें संसारका मूल कारण अविद्या और मोक्षका मुख्य हेतु सम्यम्दशन अर्थात योगजन्य विवेकख्याति माना गया है | महर्षि पलझ्ललिकी दृष्टिविशालता-यह पहले कहा जा चुका है के सांख्य सिद्धान्त और उसकी प्रक्रि- याको ले कर पतज्ञलिने अपना योगशास्त्र रचा हे, तथापि उनमें एक ऐसी विशेषता अर्थात्‌ दृष्टिविशालता नज़र आती है जो अन्य दाशनिक विद्वानोंमें बहुत कम पाई जाती है । इसी विशेषताके कारण उनका योगशार्र मानों सर्वदशनसमन्वय बन गया है । उदाहरणार्थ सांख्यका निरीश्रर्थाद जब वैशेषिक, मैयायिक आदि दर्श नोंके द्वारा अच्छी तरह निरस्त हो गया और साधारण लोक-स्वभाबका झुकाव भी ईश्वरोपासनाकी ओर विशेष मालूम पडा, तब अधिकारिभेद तथा रूचिविधित्रताका विचार करके पतम्नलिने अपने योगमार्गमें ईश्व रोपासनाकों भी स्थान ? दिया, ओर इंश्वरके स्वरूपका उन्होंने निष्पक्ष भावसे ऐसा निरूपण4 किया है जो सबकी मान्य हो सके | प्तझ्ललिने सोचा कि उपासना करनेवाले सभी लोगोंका साध्य एक ही है, फिर भी वे उपासनाकी भिन्नता ओर उपासनामें उपयोगी होनेवाली प्रतीकोंकी भिन्नताके व्यामोहमें अशानबश आपस आपसमें लड मरते हैं, और इस धार्मिक कलहमें अपने साध्यको छोक भूल जाते हैं | लोगोंको इस अशानसे हटा कर सतृ- पथपर लानेके लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसीका ध्यान करो । जैसी प्रतीक तुम्हें पल्ंद आवे वेसी प्रतीककी” ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो, और तद्ढ्वारा परमात्म-चिन्तनके सच्छे पात्र बनों। इस उदारताकी मुर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेशके द्वारा पतझ्ञ- लिने सभी उपासकोंको योग-मार्गम स्थान दिया, और ऐसा करके घर्मके नामसे होनेबाले कलहकों कम कर. 1 यद्यपि यह व्यवस्था मूल योगसूजत्रमें नहीं हे, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उभपपादन किया हे | देखो पातञ्लल यो, पा, १ सू, २४ भाज्य तथा टॉका । 2 तदा द्रष्रुः स्वरूपायस्थानम | १-३ योगसूत्र । ७ ४ ईश्वरप्रणिधानाद्वा “ १-३३ | 4 “ क्ेशकर्मविषाकाशयेरपर/मृष्टः युरुषबिदोष इंश्वरः ” “ तत्न निरशितयं सर्वक्षबीजम्‌ ' | “ पूर्वे- घासपि गुरु: कालेना5नवच्छेदाल्‌ | ( १-२४, २५, २६ ) 0 7 यथाउमिमतध्यामादा ” १--३१९ इसी भावकी सूचक महाभारतमें-- ध्यानमुत्पादयत्यश्न, शहिताबलसंश्रयात्‌ । यथामिमतमन्त्रेण, प्रणबा््य जपेत्कृती ॥ ( शान्तिषव प्र« १९४ छो. २० ) यह उक्त है। और योगवाशि्ठमें--- यथाभिबाज्छितध्यानाज्विरमेकतयोदितातू । एकतत्त्वघुनाभ्यासात्पाणस्पन्दों निरुध्यते | ( उपशम प्रकरण सर्ग ७८ छो. १६। ) यह उक्ति है।




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