अभिनवनाट्यशास्त्रम भाग - 1 | Abhinavanatyashastram Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ख्चकाकि्कंिभअल्‍ििन लत नल्‍ स्म्स््ल्ल्स्ल्ल््ज् व चसरज्ल्फलट [ राजाको चाहिए. कि गणिका, दासी ( गणिकाओं से अतिरिक्त और साधारण वेश्या ) तथा 5इमंच पर अभिनय करके जीविका क्रनेवाली स्तरियोक्ी गाना, बजाना, नाचनां, अभिनय करना, लिखना, चित्रक्री करना, वीणा, बेणु, तथा मृदगकों विशेष रीतिसे बजाना, दूसरेके चित्तको - पह्चानना, गन्ध बनाना, माला गूं थना ( गन्धसयूम माल्य- सपादन ), पैर आदि अंग दबाना ( सवाहन ), शरीरको सब्र प्रकारसे अलकृत करना, भर ( चौंसठ ) वछाएँ आदि सिखानेके छिये भाचायंका प्रबन्ध करे और उस पर गज- मण्डल (नगर या ग्रामोंसे आनेवाली आय) से व्यय करे । ] [ गणिवापुत्रात्नज्ञोपजीविनश्र मुख्यात्रिष्पादयेयु सर्व- तालाबचाराणां व ४२ ॥ [ गणिवाओं के पुत्रों तथा मुख्य रज्ञोपजीवियों (रक्षमच पर अभिनय भादि करके जीविका क्मनिवाले मुख्य नें) , को अम्य सब रह्ोपजीवियोंदा ( सबंताठाबचारणां ) प्रधान बनाया जाय । आर्थात्‌ ये, सबके आचार्य होकर काम करें। || जैनियाँका रायपसेणीयमुत नामक एक आगम ग्रथ है। इसमें यद कथा दी गई है कि एक बार भगवान महावीर घूमते-फिरते आमलकणा नगरीमें पढ़ेंचे और अम्ब॒राद बनमें अशोक वृक्षफे नीच एक बड़ी सी कार्ली शिलापर बैठ गए.1 उसी समय ख्र्मके सूर्बामदेव उनबी वन्दना ब्रनेके लिये आए, किन्तु उनवी यद्द वन्‍्दना खाधारण नहीं थी । सूर्याभदेवने मष्टावीर॒जीके पास भाकर पहले गा बजा और नाचकर बन्दुना घी मौर फिर अमिमयात्मक नाटक किया । इसी प्रसगर्मे-सूत्रकारने संगीतके स्वरूप और प्रवारके साथ साथ अनेक प्रकरके वाद्योके नाम और उन्हें विभिन्न प्रकास्से बजानेवी रीति विग्तार्से वर्णन बी है | इसके अतिरिक्त सूर्यामदेवने बरत्ीस प्रकारके अभिनयात्मक नाउक करके दिखाए थे जिनमें कुछ प्रडगति-सम्बन्धी थे जैसे--सागरदी तरगरा, चस्ह्रोदबका, सादा और हाथी गतिज्ञ अभिनव इत्यादि । इसके पश्चात्‌ उन्होंने छिपिका अभिनय प्रारम्भ किया और उसमे चर्णमालके क्चदतय वर्गों ्त अभिनय किया । इस बच्तीस प्रकारके अमिनयामसे कुछ तो ऐसे हैँ जो मग्तके नाव्यशात््रमे ट मिलते है किन्तु रोष नितान्त नये हैं। इससे भी यद सिद्ध होता है कि जैनियाँमो भी महापुद्षोंके १४ क्ल्व्य्ल््ण्य्- हर आदरके लिये अभिनय करनेढ्ी परंपरा थी। महावीर स्वामीके लगभग दो या सवा दो सौ वर्ष पीछे भद्गबाहु स्वामीने भी कब्पसूजमें जड़दृत्ति साधुओंका उल्लेख करने हुए यह कथा दी है-- एक बार एक साधु जब बहुत देरसे आश्रममें छोटा तो गुरुजीने देरसे छोय्नेस कारण पूछा । उसने कहा--मार्ग में नर्गका नाटक देखनेके छिये में रक् गया था। इसपर गुरजीने यह आदेश दिया कि न्टोंका नाटक साधुओोकों नहीं देखना चाहिए. | थाड़े दिन पीछे वह फिर विलबसे आया और पूछे जानेरर कहा कि में नथ्योक्ा माठक देखने लगा या | तब गुरुजीने कहय--सुम बड़े जड़बुद्धि हो । जब इमने नयका नाटक देखनेका निपेध् किया उसका अर्य ही यह था कि नट्योका भी नायक नहीं देखना चाहिए । औद्धोंके घम ग्न्थोम मी नाटकशा स्पष्ट उन्लेख मिलता हूं। यहाँ क कि एक बार बुद्धदेव जब राजणइमें थे उस समय उनके शिष्य मौद्लायन और उपतिष्यने सबके सामने अभिनय करके दिखाया था| किल्तु इन सबसे पहले शुक्ल गजुबेंदवी वाजसनेय सहिताके तीसबे अध्य यमें पुरुषमेध ( पुरषरुप परमात्माहें लिये यज्ञ ) प्रकरणमें यह व्यवस्था दी है कि यजके समय किस प्रकारक कार्यके छिये डिसे नियुक्त किया जाय। उसी प्रमगर्मे छठी कण्डिकार्म यह मत्र दिया गया हे-- दवाययतझ्लीताय औदूपस्धर्म्मयतमाचरज्रिश्ये भीमलत्नर््मायरेम हसायमरिमानन्‍्दयत्रीपल- कर म्पमदे कुमारीपुत्रम्मेघाये रथकारन्वेस्यविनश्षाणम्‌ ॥ [ रच ( ठाछ, छयके साथ नाचने ) के लिये सृतनों गीतके ठिये दोद्ूप ( नट्र ) को, धर्मरी ब'ते बतानेके लिये सभा-चतुर व्यक्तिको, सबको ठीकसे वैठ-नेके ठिये छम्बेन्वौरे जवानकों, छोगांके विभोदके लिये वाक्चतुरके, - शज्ञारकों बाताँक लिये कठावारको, आनन्दके लिये नपु सर्केको, समय बितानेके छिये कुमारीपुउतों, च्ुराईके का्मोंके लिये रथ- कारवों ओर घीरजमसे कम करनेके लिये बढईकसे नियुक्त काना चाहिए. । | इससे यह सिद्ध होता ६ कि थागसे सहस्नों वर्ष पूर्व बैदिक वालमें भी नागर पूर्ण स्पर्मे हमारे देशमें विद्यमान




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