मोही मोही नारि नारि के रूपा | Mohi Nari Nari Ke Rupa

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Mohi Nari Nari Ke Rupa by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
मोदी नारि नारि के रूपा श्ण कर रसीली मॉखो के श्वावदार दर्पण में मुमे अपने ले किक रूप लावण्य की अदूमुत छटा को असमय में ही देखने समझने का अचल सौभाग्य प्राप्त हुआ | बसन्त की चहार शुरू हो गई थी । हमारे बंगले के बगीचे के फू मस्त खुशत्ू से अजीब उमगों वाला वातावरण उपस्थित कर रहे थे । श्ञामो की वौरो की तीखी सुगन्ध नासिका मन और श्न्तरात्मा को इस भूतल पर ही स्वगं के अनुपम सुख की झारम-विस्मृतकारी अलुभूति का रसास्वादन कराने से पूण रूप से सफल हो रही थी । अस्ताचलगामी सूय की सुनहली किरणें संतार का सुनहला रूप देकर एक नवीन मस्ती की दुनिया की सष्रि कर रही थी । ऐसे ही मनभावन अवसर पर में अपनी एक हमजोली सुन्दरी सददपाठनी सखी के साथ फूलों की रोसें के बीच फुदक रही थी । हम दोनो सें बाते भी चल रही थी और हसी-मजाक के फव्वार भी छूट रहे थे । हम अपने में इतनी मदहोश थी कि हमे दीनदुनिया की सुधबुध तक न थी । ठीक ऐसे ही समय मे चगल की लता-ओट से मुझे चचाजान का सुरीला कंठ-स्वर सुन पड़ा । वे मेरी सखी को संबोधित कर कुछ मोठे-मीठे शब्द कह रहे थे। हम दोनों चौंकीं झौर भिककी संभलीं । श्रौर इतने में ही चचाजान दमारे सामने आ धमके । मु उनका इस समय का ऐसा वेढंगा आना कुछ ज्यादा मे रुचा क्योंकि मेंने देखा उनके शब्दों के कान में पड़ते ही मेरी सखी सहम-ठिठक कर गुमसुमनसी हो रही । उसके श्ोठों पर की बरस घात-वात में विखर पढ़ते वानी बेतील हँसी श्नों- यास ही सूवकर उड चुकी है। उसके सुन्दर सलोने ध्याकर्षर सुख पर झपने श्राप अठखेलियां करने वाली अ्रसन्नता की श्माभा लुप् हो गई है। उससे श्वेत-श्याम-रतनारे प्नियारि श्ाकर्ण विस्वीण दीरघ नयनों में से सदज उत्फुल्लता-चंचलता मुरमकाकर




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now