हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास | Hindi Sahitya ka Vivechnatmak Itihas

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Hindi Sahitya ka Vivechnatmak Itihas by सूर्यकान्त शास्त्री - Suryakant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) की धूम मच गई, सम्प्रदायों का दौरदौरा हो गया । सम्प्रदायों के चाहुल्य का वर्णन आचन्दगिरि के शददों में इस मकार हू केचिच्वन्द्रपराः परे कुजपराः केचिच मन्दाश्रिता: । केंचित कालपराः परे पिदृपरा: केचिच॒ नागेशयाः । केचिसाचयपरारच सिद्धिनिचयं सेवान्ति केचिद्धिया ॥ केंचिद्‌ गन्धवसाध्यादीन्‌ भूतवेताद्गा: परे | एवं नानाप्रभदानां नूणां बूतियथेाप्सिता ॥ केचित्‌ स्ववृत्ति वेदाथ: प्रतिपादां समूचिरे । केंचिद्धर्मेरियं सुरक्रिरिति जल्प॑ समास्थिता: ॥ द्रन्योन्यमरसरयर्ताः पररपरजये पिया: 1 निजेच्छाकृत्तिसड्रेपु घारयन्ति रुपन्विता: ॥ शझर के भ्रद्देतलवाद ने कुछ काल के लिये संप्रदायां को दवा दिया, किन्तु शट्र का प्रभाव स्थायी न रहा | नवम शताद्दी में संप्रदायों ने फिर बल पकड़ा श्रीर घार्मिक वितरडाबाद की धूम रही । समाज का शिच्ित समुदाय नास्तिक होगया ्रीर श्शिक्षितिवर्ग अंधविश्वास से फंस यया । रामानन्द तथा कबीर दि के श्रभ्युद्य तक सक्षेप में यद्दी दशा यनी रही । बारहवीं सदी में श्राने वाला श्रल इृद्रिसी 21 पाएं के लेखों की पुष्टि करता हुभ्ा भारतीयों के साहित्य, ध्याचार, तथा दर्शनशास्त्र की अशसा करता हू । परन्तु कार दशना स साम्राउया को रचा नहीं होती । दशन के साथ कृपाण का होना श्रावश्यक है । भारत ने सदाकाल से 'सत्य शान्त शिवम की पूजा करते हुए दर्शन को अपनाया घोर तलवार का वहिप्कार किया । परन्तु श्राततायी जगव्‌ ने उपनिपद्‌ के इस मन्त्र में क्रियास्सक 'प्रास्था कभी नहीं रक्खी | उसने बार बार शान्ति को व्स पहुचाइ हूं । फलत:* शान्त भारत को चिदाशियों के सम्मुख सिर हिन्दु्सों की दशनप्रियता दर उसके हानि लाभ पर विचार करते हुए प्रा० इश्वरीप्रसाद लिखते हैं।--




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